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हिंदी साहित्य का इतिहास-आचार्य रामचंद्र शुक्ल: मुख्य बिंदु

हिंदी साहित्य का इतिहास-आचार्य रामचंद्र शुक्ल: मुख्य बिंदु

आदिकाल

प्रकरणसामान्य परिचय

1.)”प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिंदी साहित्य का आविर्भाव माना जा सकता है।”

2.)”अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी के पदों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों की सांप्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है।”


3.)”1050 से लेकर संवाद 1375 तक अर्थात महाराजा भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय के कुछ पीछे तक माना जा सकता है।”


4.)”आदिकाल में धर्म,नीति,श्रृंगार,वीर सब प्रकार की रचनाएं दोहों में मिलती है।”


5.)”राजाश्रित कवि और चारण जिस प्रकार नीति,श्रृंगार आदि के फुटकल दोहे राज सभाओं में सुनाया करते थे,उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रम पूर्ण चरितों या गाथाओं का वर्णन भी किया करते थे।यही प्रबंध परंपरा ‘रासो’ के नाम से पाई जाती है।”


6.) शारंगधर हम्मीर की वीरता का वर्णन ऐसी भाषा में करते हैं:-
‘चलिअ वीर हम्मीर पाअभर मेइणि कंपइ ।
दिगमग णह अंधार धूलि सुरह आच्छाइहि।।


7.)अमीर खुसरो-एक नार ने अचरज किया। साँप मार पिंजरे में दिया।


8.)*विद्यापति-बालचंद विज्जावइ भाषा।दुहु नहीं लग्गइ दुज्जन हासा।
*देसिल बअना सब जन मिट्ठा । तें तैंसन जंपओं अवहटठा।


9.)कबीर-अगिन जो लागी नीर में कंदो जलिया झारि।
उतर दषिण के पंडिता रहे बिचारि-बिचारि।।


10.)एक ही कवि विद्यापति ने दो प्रकार की भाषा का व्यवहार किया है।-1.पुरानी अपभ्रंश भाषा का 2.बोलचाल की देशी भाषा का।


11.”विद्यापति ने अपभ्रंश से भिन्न, प्रचलित बोलचाल की भाषा को ‘देशी भाषा’ कहा है।”

प्रकरण-2–अपभ्रंश काव्य

1.जब से प्राकृत बोलचाल की भाषा ना रह गयी तभी से अपभ्रंश साहित्य का आविर्भाव समझना चाहिए।

2.प्राकृत से बिगड़ कर जो रूप बोलचाल की भाषा में ग्रहण किया वह भी आगे चलकर कुछ पुराना पड़ गया और काव्य रचना के लिए रूढ़ हो गया अपभ्रंश नाम उसी समय से चला।

3.भरतमुनि(विक्रम तीसरी शताब्दी)ने अपभ्रंश नाम ना देकर लोक भाषा को देश भाषा ही कहा है।
*अपभ्रंश नाम पहले पहल बलभी के राजा धार सेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है।जिसमें उसने अपने पिता गुहसेन को संस्कृत,प्राकृत,अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है।


4.देवसेन(जैन ग्रंथकार)-रचना-श्रावकाचार(दोहा)-भाषा-अपभ्रंश
दूसरी रचना-द्रव्य-स्वभाव-प्रकाश
“जो जिण सासण भाषियउ सो मइ कहयउ सारू।
जो पालइ सइ भाउ करि सो सरि पावइ पारू।।

5.पुष्पदंत(संवत 1029)रचना-आदिपुराण और उत्तरपुराण(चौपाई)

6.सबलसिंह चौहान-रचना-महाभारत

सिद्ध-बिहार से लेकर आसाम तक फैले हुए थे।
सिद्धों की संख्या 84 है।

राजशेखर-रचना-कर्पूरमंजरी

(सिद्ध साहित्य)
● सिद्धों तांत्रिक योगियों को लोग अलौकिक समझते थे।
● ये अपनी सिद्धि, विभूति के लिए प्रसिद्ध थे।
● जनता पर इन सिद्ध योगियों का प्रभाव 10वीं सदी से पाया जाता है।
● सिद्ध, बिहार से असाम तक फैले थे।
● इनका अड्डा- नालंदा, विक्रमशीला विद्यापीठ था।
● बख्तियार खिलजी ने इस जगह को जब उजाड़ दिया तो ये तीतर-बीतर हो गए।
● बहुत से भोट दूसरे देश में चले गए।
● सिद्ध अपने मत का संस्कार जनता पर डालना चाहते थे।
●इसलिए वे ‘अपभ्रंश मिश्रित देशभाषा’ में काव्य सुनाते रहते थे।
● इनकी रचनाओं का एक संग्रह पहले – हरप्रसाद शास्त्री ने बंगला में ‘बौद्धगान-ओ-दोहा’ नाम से निकाला।
● वज्रयानियों की योगतंत्र साधनाओं में ‘मद्य’ तथा ‘स्त्रियों’ का विशेषतः ‘डोमिनी’, ‘रजकी’ आदि का अबाध सेवन आवश्यक अंग था।
● रहस्यमार्गी भी थे सिद्ध अपनी बानी ऐसे पहेली में कहते थे कि कोई बिरला ही समझ पाए।
● वज्रयान में ‘महासुखवाद’ का प्रवर्तन है।
● प्रज्ञा और उपाय के योग से ‘महासुख’ दशा की प्राप्ति।
● इसे वे लोग आनंदस्वरूप ईश्वरत्व समझते थे।
● निर्वाण के तीन अवयव- शून्य, विज्ञान, महासुख
● अश्लील मुद्राओं में मूर्तियां बनी।
● ऊंच नीच कई वर्ण की स्त्रियों को लेकर मद्यपान के साथ अनेक विभत्स विधान वज्रयानियों की साधना के प्रमुख अंग थे।
● सिद्धि प्राप्त करने के लिए किसी स्त्री का (जिसे शक्ति या महामुद्रा कहा जाता था) योग या सेवन आवश्यक था।
● इला, पिंगला के बीच सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग में शून्य देश की यात्रा)।
● इसी से वे अपनी बानियों की भाषा ‘संध्या भाषा’ कहते थे।
● दक्षिण छोड़ वाममार्ग के समर्थक थे।
● कौल/कपालिक इन्हीं वज्रयानियों से निकले है।
● कण्हपा के उपदेश की भाषा ‘पुरानी टकसाली’ हिंदी (काव्यभाषा) पर गीत की भाषा पुरानी बोली या पूर्वी है।

1.सरहपाद-
पंडिअ सअल सत्ता बक्खाणइ। देहहि रुद्ध बसंत न जाणइ।
अमणागमण ण तेन विखंडिअ। तोवि णिलज्ज भणइ हउँ पंडिअ।

*नाद न बिंदु न रवि न शशि मंडल। चिअराअ सहाबे मूकल।

2.लूइपा-
काआ तरुवर पंच बिड़ाल। चंचल चीए पइठो काल।
दिट करिअ महासुह परिमाण। लूइ भणइ गुरु पुच्छिअ जाण

*भाव न होइ, अभाव ण जाइ। अइस संबोहे को पतिआइ?

3.विरूपा-
सहजे थिर करि वारुणी साधा । अजरामर होइ दिट काँधा।

4.कण्हपा-
एक्क ण किज्जइ मंत्र ण तंत। णिअ धारणी लइ केलि करंत।

*नगर बाहिरे डोंबी तोहरि कुड़ियाछइ।
छोइ जाइ सो बाह्म नाड़िया।

*गंगा जउँना माझे रे बहइ नाई।
ताहि बुड़िलि मातंगि पोइआ लीले पार करेइ।

*काआ नावड़ि खाँटी मन करिआल। सदगुरु बअणे घर पतवाल।

*ससुरी निंद गेल, बहुड़ी जागअ । कानेट चोर निलका गइ मागअ।

* ‘जिमि लोण बिलिज्जइ पाणि एहि तिमि घरणी लइ चित्त।’

5.तंतिपा-

बेंग संसार बाड़हिल जाअ । दुहिल दूध के बेंटे समाअ।

*बज्रयान में ‘महासुखवाद’ का प्रवर्तन हुआ।

(नाथ सम्प्रदाय)
● गोरखनाथ ने प्रचार 【पश्चिमी क्षेत्र/ राजपूताने(राजस्थान) और पंजाब में किया।
● मत्स्येंद्रनाथ के गुरु जलंधर (दूसरा नाम बालनाथ)
●9 नाथ- नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चंद्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरखनाथ, चर्पटनाथ, जलंधरनाथ, मलयार्जुन
● नाथपंथ में रसायन की सिद्धि है।
● नाथपंथ ‘सिद्धो’ की परंपरा से ही छंटकर निकला है।
● “इतिहास और जनश्रुति से इस बात का पता लगता है कि सूफी फकीरों और पीडों के द्वारा इस्लाम को जनप्रिय बनाने का उद्योग भारत में बहुत दिनों तक चलता रहा।”
● गोरखनाथ की हठयोग साधना ईश्वरवाद को लेकर चली थी अतः उसमें मुसलमान के लिए भी आकर्षण था।
● नाथ सम्प्रदाय के सिद्धांतों, ग्रंथों के इश्वरदेवोपासना के बाह्यविधानों के प्रति उपेक्षा प्रकट की गई है।
● घट के भीतर ही ईश्वर को प्राप्त करने पर जोड़ दिया जाता है।
● वेदशास्त्र का अध्ययन व्यर्थ ठहराकर विद्वानों के प्रति अश्रद्धा प्रकट की गई है।
● तीर्थाटन आदि निष्फल कहे गए हैं (सिद्ध भी यही मानते थे)
●सद्गुरु का महत्व सिद्ध/नाथ दोनों में है।
● नाथ ने नागर अपभ्रंस या ब्रज का एक रूप/ सधुक्कड़ी भाषा का सहारा लिया।
● काफ़िरबोध पुस्तक का उल्लेख (नाथ सम्प्रदाय) में है।
●गोरखनाथ में साम्प्रदायिक शिक्षा है।

गोरखनाथ के नाथपंथ का मूल भी बौद्धों की यह वज्रयान शाखा है।
गोरखनाथ ने अपने ग्रंथ का प्रचार पश्चिमी भागों में-राजपूताने पंजाब में किया।

नाथों की संख्या 9 है- नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चंद्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरक्षनाथ, चर्पट, जलंधर और मलयार्जुन।

*चौरासी सिध्दों में बहुत-से मछुए, चमार, धोबी, डोम, कहार, लकड़हारे, दरजी तथा बहुत-से शूद्र कहे जाने वाले लोग थे। अत: जाति-पाँति के खंडन तो वे आप ही थे। 

गोरखनाथ की रचना-स्वामी तुम्हई गुर गोसाईं ।अम्हे जो सिव सबद एक बूझिबा।

*सिध्दों की उध्दृत रचनाओं की भाषा देशभाषा मिश्रित अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी की काव्य भाषा है।

सिद्ध एवं नाथ के सम्बंध में-उनकी रचनाओं का जीवन की स्वाभाविक सरणियों, अनुभूतियों और दशाओं से कोई संबंध नहीं।वे सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, अत: शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकतीं।

हेमचन्द्र-ये अपने समय के प्रसिद्ध जैन आचार्य थे।
रचना-'सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन।'
प्राकृत में लिखित-कुमारपालचरित

*-भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु।
लज्जेजं तु वयंसिअहु जइ भग्गा घरु एंतु।
*-जइ सो न आवइ, दुइ ! घरु काँइ अहोमुहु तुज्झु।
*-जे महु दिण्णा दिअहड़ा दइएँ पवसंतेण।
*-पिय संगमि कउ निद्दड़ी? पियहो परक्खहो केंव।

सोमप्रभ सूरि-जैन पंडित
रचना-कुमारपालप्रतिबोध(गद्यमय-संस्कृत-प्राकृत-काव्य)
*-रावण जायउ जहि दिअहि दह मुह एक सरीरु।
*-बेस बिसिट्ठह बारियइ जइवि मणोहर गत्ता।
*-पिय हउँ थक्किय सयलु दिणु तुह विरहग्गि किलंत।

जैनाचार्य मेरुतुंग-रचना-'प्रबंधचिंतामणि
*-झाली तुट्टी किं न मुउ, किं न हुएउ छरपुंज।
*-मुंज भणइ, मुणालवइ! जुब्बण गयुं न झूरि।
*-जा मति पच्छइ संपजइ सा मति पहिली होइ।
*-बाह बिछोड़बि जाहि तुहँ हउँ तेवइँ का दोसु।
*-एउ जम्मु नग्गुहं गिउ, भड़सिरि खग्गु न भग्गु।

विद्याधर-रचना-प्राकृत पिंगल सूत्र।
*-भअ भज्जिअ बंगा भंगु कलिंगा तेलंगा रण मुत्ति चले।

शारंगधर-अच्छे कवि एवं सूत्रकार।
रचना-हम्मीर रासो
*-नूनं बादलं छाइ खेह पसरी नि:श्राण शब्द: खर:।
*-ढोला मारिय ढिल्लि महँ मुच्छिउ मेच्छ सरीर।
*-पिंघउ दिड़ सन्नाह, बाह उप्परि पक्खर दइ।
*पअभर दरमरु धारणि तरणि रह धुल्लिअ झंपिअ।

विद्यापति-रचना-कीर्तिलता, कीर्तिपताका।
*-रज्ज लुद्ध असलान बुद्धि बिक्कम बले हारल।
*-पुरिसत्तोण पुरिसओ, नहिं पुरिसओ जम्म मत्तोन।
*कतहुँ तुरुक बरकर । बाट जाए ते बेगार धर।

प्रकरण-3–देशभाषा काव्य


1.संदिग्ध रचना जो प्राकृतिक रूढ़ियों से मुक्त थे‌‌- बीसलदेव रासो,पृथ्वीराज रासो।


2.सारांश यह कि जिस समय से हमारे हिन्दी साहित्य का अभ्युदय होता है, वह लड़ाई-भिड़ाई का समय था, वीरता के गौरव का समय था।


3.राजसभाओं में सुनाए जाने वाले नीति, श्रृंगार आदि विषय प्राय: दोहों में कहे जाते थे और वीररस के पद्य छप्पय में।


4.ये वीरगाथाएँ दो रूपों में मिलती हैं प्रबंधकाव्य के साहित्यिक रूप में और वीरगीतों (बैलड्स) के रूप में। साहित्यिक प्रबंध के रूप में जो सबसे प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध है, वह है ‘पृथ्वीराजरासो‘। वीरगीत के रूप में हमें सबसे पुरानी पुस्तक ‘बीसलदेवरासो‘ मिलती है, यद्यपि उसमें समयानुसार भाषा के परिवर्तन का आभास मिलता है। जो रचना कई सौ वर्षों से लोगों में बराबर गाई जाती रही हो, उसकी भाषा अपने मूल रूप में नहीं रह सकती। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण ‘आल्हा’ है जिसके गानेवाले प्राय: समस्त उत्तरी भारत में पाए जाते हैं।

1. खुमान रासो-रचनाकार-दलपति विजय
खुम्माण ने 24 युद्ध किए और वि. संवत् 869 से 893 तक राज्य किया। 

2.बीसलदेवरासो-रचनाकार-नरपति नाल्ह
बीसलदेवरासो‘ नामक एक छोटा-सा (100 पृष्ठों का) ग्रंथ है।
*बारह सै बहोत्तराँ मझारि। जेठबदी नवमी बुधावारि।
‘नाल्ह’ रसायण आरंभइ। शारदा तुठी ब्रह्मकुमारि।

बीसलदेवरासो में चार खंड है। यह काव्य लगभग 2000 चरणों में समाप्त हुआ है।


कथासार-
खंड 1 मालवा के भोज परमार की पुत्री राजमती से साँभर के बीसलदेव का विवाह होना।
खंड 2 बीसलदेव का राजमती से रूठकर उड़ीसा की ओर प्रस्थान करना तथा वहाँ एक वर्ष रहना।
खंड 3 राजमती का विरह वर्णन तथा बीसलदेव का उड़ीसा से लौटना।
खंड 4 भोज का अपनी पुत्री को अपने घर लिवा ले जाना तथा बीसलदेव का वहाँ जाकर राजमती को फिर चित्तौड़ लाना।


यह घटनात्मक काव्य नहीं है, वर्णनात्मक है।


*मंहल पलाण्यो ताजदीन। खुरसाणी चढ़ि चाल्यो गोंड़।


अपभ्रंश के योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो साहित्यिक रूप था वह ‘डिंगल‘ कहलाता था। 


*परणबा1 चाल्यो बीसलराय । चउरास्या2 सहु3 लिया बोलाइ।

3.चंदबरदाई (संवत् 1225-1249) ये हिन्दी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका पृथ्वीराजरासो हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है।


पृथ्वीराजरासो ढाई हजार पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसमें 69 समय (सर्ग या अध्याय) हैं। प्राचीन समय में प्रचलित प्राय: सभी छंदों का व्यवहार हुआ है।

मुख्य छंद हैं कवित्त (छप्पय), दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या।
*पुस्तक जल्हन हत्थ दै चलि गज्जन नृपकाज।


पृथ्वीराज रासो के संदर्भ में-यह पूरा ग्रंथ वास्तव में जाली है। 

भाषा की कसौटी पर यदि ग्रंथ को कसते हैं तो और भी निराश होना पड़ता है क्योंकि वह बिल्कुल बेठिकाने है उसमें व्याकरण आदि की कोई व्यवस्था नहीं है।

4.भट्ट केदार-रचना-जयचंदप्रकाश


5.मधुकर कवि-जयमयंकजसचंद्रिका


6.जगनिक (संवत् 1230)-रचना-परमाल रासो


*बारह बरिस लै कूकर जीऐं, औ तेरह लै जिऐं सियार।
बरिस अठारह छत्री जीऐं, आगे जीवन के धिक्कार।


*परमाल रासो के संदर्भ में-यह गूँज मात्र है, मूल शब्द नहीं।


*आल्हाखंडचार्ल्स इलियट ने इन गीतों का संग्रह करके छपवाया था।


7.श्रीधर-रचना-‘रणमल्ल छंद’


*ढमढमइ ढमढमकार ढंकर ढोल ढोली जंगिया।
सुर करहि रण सहणाइ समुहरि सरस रसि समरंगिया।


◆प्रकरण-4–फुटकल रचनाएँ

◆वीरगाथा काल के समाप्त होते-होते हमें जनता की बहुत कुछ असली बोलचाल और उसके बीच कहे-सुने जानेवाले पद्यों की भाषा के बहुत कुछ असली रूप का पता चलता है।


◆जैसे पुराना चावल ही बड़े आदमियों के खाने योग्य समझा जाता है वैसे ही अपने समय से कुछ पुरानी पड़ी हुई परंपरा के गौरव से युक्त भाषा ही पुस्तक रचनेवालों के व्यवहार योग्य समझी जाती थी।


1.खुसरो-पहेलियों और मुकरियों में-उक्तिवैचित्रय की प्रधानता थी।
खुसरो के प्राय: दो सौ वर्ष पीछे की लिखी जो कबीर की बानी की हस्तलिखित प्रति मिली है उसकी भाषा कुछ पंजाबी लिए राजस्थानी है।
कबीर की अपेक्षा खुसरो का ध्यान बोलचाल की भाषा की ओर अधिक था।

खुसरो की कुछ पहेलियाँ, दोहे,गीत-

*एक थाल मोती से भरा। सबके सिर पर औंधा धरा
चारों ओर वह थाली फिरे। मोती उससे एक न गिरे
(आकाश)
*एक नार ने अचरज किया। साँप मारि पिंजडे में दिया
जों-जों साँप ताल को खाए। सूखे ताल साँप मर जाए
(दिया-बत्ती)
*एक नार दो को ले बैठी। टेढ़ी होके बिल में पैठी
जिसके बैठे उसे सुहाय। खुसरो उसके बल-बल जाय
(पायजामा)
*अरथ तो इसका बूझेगा। मुँह देखो तो सूझेगा
(दर्पण)
ब्रजभाषा के रूप:-
*चूक भई कुछ वासों ऐसी। देस छोड़ भयो परदेसी।
*एक नार पिया को भानी। तन वाको सगरा ज्यों पानी।
*चाम मास वाके नहिं नेक। हाड़-हाड़ में वाके छेद।
मोहिं अचंभो आवत ऐसे। वामें जीव बसत है कैसे।।
*उज्जल बरन, अधीन तन, एक चित्त दो ध्यान।
*मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल। कैसे गर दीनी बकस मोरी माल
सूनी सेज डरावन लागै, बिरहा अगिन मोहि डस-डस जाय।
*हजरत निजामदीन चिस्ती जरजरीं बख्श पीर।
*जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना, बनाय बतियाँ।
कि ताबे हिज्राँ न दारम, ऐ जाँ! न लेहु काहें लगाय छतियाँ।

2.विद्यापति-पदावली के कारण ‘मैथिलकोकिल‘ कहलाये।


◆जिस प्रकार हिन्दी साहित्य ‘बीसलदेवरासो‘ पर अपना अधिकार रखता है उसी प्रकार विद्यापति की पदावली पर भी।


विद्यापति के पद अधिकतर श्रृंगार के ही हैं, जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं। 
विद्यापति शैव थे। 


◆आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीतगोविंद‘ के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।


◆शिवसिंह के लिए दो पद-
*सरस बसंत समय भल पावलि, दछिन पवन बह धीरे।
*कालि कहल पिय साँझहि रे, जाइबि मइ मारू देस।


◆मोटे हिसाब से वीरगाथा काल महाराज हम्मीर के समय तक ही समझना चाहिए। 


◆हिन्दी साहित्य के इतिहास की एक विशेषता यह भी रही कि एक विशिष्ट काल में किसी रूप की जो काव्यसरिता वेग से प्रवाहित हुई, वह यद्यपि आगे चलकर मंद गति से बहने लगी, पर 900 वर्षों के हिन्दी साहित्य के इतिहास में हम उसे कभी सर्वथा सूखी हुई नहीं पाते।