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भीगते राम अब नहीं लौटते…

भीगते राम अब नहीं लौटते…

दसरथ नंदन राम पुरुषोत्तम,मर्यादित शायद ही कहे जाते अगर वन को ना गए होते।वन के 14 साल उनके संघर्षो का काल था।जहां वे कभी जानवरों से तो कभी राक्षसों से लड़ते रहे।सीता हरण के बाद वे स्वयं से भी लड़े।लेकिन जब अयोध्या लौटे तो अलग-अलग तरह के मित्र के साथ लौटे।सुखद लौटे।

लेक़िन आज के राम को किसी के कहने पर नहीं जाना होता। वो अपने घर के और राज्य में अभाव के कारण वन रूपी शहर को जाते हैं, और फिर कभी नहीं लौटते। कुछ राम स्वेच्छा और इच्छाओं से नहीं लौटते।और कुछ राम इच्छा रहते हुए भी जिम्मेदारियों के कारण नहीं लौट पाते।इच्छित राम धीरे-धीरे गाँव/समाज रूपी मुकुट को बदलकर शहर के कमरों में समाते जाते हैं।जहाँ उन्हें ना किसी मुकुट की चिंता है,न किसी ताज की और ना ही किसी महाराज की।

विद्या निवास मिश्र (28 जनवरी 1926 – 14 फ़रवरी 2005) ललित निबन्ध को हिंदी साहित्य में स्वीकृति और सम्मान दिलाने वाले तथा लोक संस्कृति को जिलाए रखने वाले महत्वपूर्ण निबन्धकार हैं।वे परम्परा को मार कर आधुनिकता को जीवित रखने वालों में से नहीं, बल्कि परम्परा को नज़र में रखते हुए आधुनिक दृष्टिकोण रखने वाले लेखक थे।

उदासी मन में तो हो लेक़िन वजह पता ना हो तो वो और खटकती है।मेरे राम का मुकुट भीग रहा है के निबन्धकार की ऐसी ही हालत है।वो महसूसते हैं कि जो कुछ भी हुआ वह सहज ही हुआ।ना होता तो अटपटा होता।

लेखक के पुत्र जो संकट बोध की कविता लिखते हैं।और महानगरीय वातावरण में पली एक कन्या जो उनसे अनुमति माँग कर एक संगीत कार्यक्रम में जाते हैं।देर रात तक दोनों जब नहीं लौटे तो लेखक को चिंता हुई।वो समूचे रात उनकी राह जोहते रहे।

हमारे मन में जब बहुत दिनों से कुछ बैठा हो तो वह इंतज़ार के समय में जरूर बाहर आता है।लेखक के मन में भी एक पंक्तियां गूँजी-
“मोरे राम के भीजे मुकुटवा
लछिमन के पटुकवा
मोरी सीता के भीजै सेनुरवा
त राम घर लौटहिं।”

उनकी दादी-नानी यह गीत उनके बाहर जाने पर गाती थी।लेक़िन तब उन्हें उस भाव का एहसास नहीं होता था।लेक़िन वही बात है जो बात हम दूसरे के साथ नहीं सीखते,स्वयं के साथ सीख जाते हैं।आज लेखक उसी मनोभाव से गुज़र रहे हैं।

उन्हें बाहर गयी हुई लड़की की चिंता है।यह समाज लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं है।चिंता वाज़िब है लड़कियों के लिए इस समाज की दृष्टि अभी भी नहीं बदली।उसे अभी भी देर रात बाहर निकलते डर होता है।कितने स्तरों पर वह बचेगी?

लेखक को कौशल्या के दुःख में सभी वन गमन को गए बेटों की माँ दिखाई देती है।जो अपने राम के मुकुट की भीगने की चिंता में है।राम के अभिषेक ना होने के कारण पेड़ पौधे,लताएं सूख रहे हैं।राम को वास्तविक मुकुट तो तब नहीं मिल पाता लेकिन उस मुकुट की उन्हें जरूरत भी नहीं।क्योंकि वह मुकुट सम्पूर्ण जन के मन में बसा हुआ है।जिसे किसी सर की जरूरत नहीं।

कितनी बार राम के मुकुट पर आँच आने से उसे सीता बचाती रही।स्त्रियाँ सब कुछ देख सकती है, लेकिन जिसे वह चाहती है उसके झुके हुए मुकुट को नहीं देख सकती।जुड़वां बच्चे को निहारते हुए भी सीता अंत तक राम के मुकुट को बचाये रखती है।वह कहीं भी अपने अपमान के ज्वाले को उफनने नहीं देती।

लेखक शब्दों के घने जंगलों में अंत तक घिरा रहता है उसे पीढ़ियों का टकराव दिखता है।जहां पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी से तालमेल नहीं बिठा पा रही।और नयी पीढ़ी उनसे तालमेल बिठाना नहीं चाहती।जहां मुकुट को कोई भी भीगने देना नहीं चाहता।