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मजदूरी और प्रेम – सरदार पूर्ण सिंह

मजदूरी और प्रेम – सरदार पूर्ण सिंह

विश्वनाथ त्रिपाठी जी हिंदी साहित्य के सरल इतिहास में लिखते हैं-“व्यक्तित्व की छाप सबसे ज़्यादा निबंध में उभरती है।”
आज हम ऐसे ही एक बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न निबन्धकार के निबन्ध की चर्चा करेंगे।
उससे पहले उनके जीवन की एक छोटी सी झलक प्रस्तुत है-सरदार पूर्ण सिंह (17 फ़रवरी 1881- 31 मार्च 1931)
द्विवेदी युग के विशिष्ट निबन्धकार थे।वे स्वभाव से अत्यंत भावुक और विचार से आधुनिक और प्रगतिशील थे।उनकी मातृभाषा पंजाबी थी।बावज़ूद इसके हिंदी के भावात्मक निबंधों को लिखने में जो कौशल उन्होंने दिखाया।व जिस तरह की लाक्षणिकता की रमणीयता को प्रकट किया वैसी भावत्मकता हिंदी के तत्कालीन किसी निबन्धकार में नहीं दिखाई देता।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उनके लिए लिखा है- “उनकी लाक्षणिकता हिंदी गद्य साहित्य में एक नयी चीज़ थी।भाषा की बहुत कुछ उड़ान उसकी बहुत कुछ शक्ति,’लाक्षणिकता’ में देखी जाती है।”
उनके साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ “The Thundering Dawn” नामक अंग्रेजी पत्र के सम्पादक के रूप में हुआ।अंग्रेजी में उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तकों की संख्या-15 है तथा पंजाबी में 7 है।

हिंदी में उन्होंने बहुत ही कम लिखा पर जो लिखा बहुत ही काम का लिखा।हिंदी में उनके द्वारा लिखित 6 निबन्ध मिलते हैं।
1-सच्ची वीरता
2-कन्यादान
3-पवित्रता
4-आचरण की सभ्यता
5-“मजदूरी और प्रेम”
6-अमेरिका का मस्त योगी वाल्ट व्हिटमैन।
उनके सभी निबंध प्रसिद्ध पत्रिका ‘सरस्वती’ में 1909 से 1913 के बीच में प्रकाशित हुए थे।इनके सभी निबन्ध भावात्मक कोटि के है।जिन्हें कालांतर में आत्मपरक निबन्ध(ललित निबंध) के रूप में जाना गया।या यूं कहें कि इन भावात्मक निबन्धों ने ललित निबन्ध की पूर्वपीठिका का कार्य किया और ललित निबन्ध के विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया…
उनकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगाने वाले ‘मज़दूरी और प्रेम’ निबन्ध की समीक्षा यहाँ प्रस्तुत है-
निबन्ध 8 भागों में बंटा है-
1-हल चलाने वाले का जीवन
2-गड़रिये का जीवन
3-मजदूर की मजदूरी
4-प्रेम-मजदूरी
5-मजदूरी और कला
6-मजदूरी और फ़क़ीरी
7-समाज का पालन करनेवाली दूध की धारा
8-पश्चिमी सभ्यता का नया आदर्श

*1.)हल चलाने वाले का जीवन-”किसान के लिए खेती करना ही पूजा है”
इस पैराग्राफ में सरदार पूर्ण सिंह ने हल चलाने वाले किसान का उल्लेख सरल एवं सपाट शब्दों में किया है।जहाँ किसान को कोई दुःख नहीं है।वह खेती करके ख़ुश है।वह किसान का जीवन कैसा है?वह क्या खाता-पीता है इसका उल्लेख करते हैं।लेक़िन इसका उल्लेख नहीं करते कि वह क्या चाहता है?
पहली पंक्ति में ही उन्होंने लिखा है-“हल चलाने वाले और भेड़ चराने वाले स्वभाव से ही साधु होते हैं।”
किसान के लिए दुनियादारी मायने नहीं रखती।उसकी दुनियां उसके खेत-खलिहान और माल-जाल ही है।
मिथकों में यह कहा जाता है कि आसमान में रहने वाले ब्रम्हा ने जगत का निर्माण किया है।लेक़िन यह यथार्थ है कि इस धरती को खुशहाल किसानों ने ही रखा है।उसके उपजाए अन्न से ही जगत सुखद जीवन-यापन कर पाता है।निबन्धकार ने यहाँ-‘कर्म और श्रम की महत्ता का उल्लेख किया है।”

*2.)गड़रिये का जीवन- ”भेड़ की सेवा करना ही इनके लिए पूजा है।”
बेमकान, बेघर,बेनाम और बेपता लोग है-गड़रिये।जिनका कोई घर नहीं होता,वो जहां जाते हैं वही उनका घर हो जाता है।जिनके बच्चे अपने माँ-बाप और भेड़ के अलावा जीवन में कुछ नहीं देखा।इस पैराग्राफ में ‘पहाड़ी क्षेत्र’ का उल्लेख है क्योंकि बादल घिरने पर बच्चे पहाड़ी राग ही अलापते हैं।
हालात से मिलते जुलते 3 शायरी यहाँ आया है जो निम्न है-

“किसी के घर कर मैं न घर कर बैठना इस दारे फानी में।
ठिकाना बेठिकाना और मकाँ वर ला-मकाँ रखना॥”

“हुए थे आँखों के कल इशारे इधर हमारे उधर तुम्हारे।
चले थे अश्कों के क्या फवारे इधर हमारे उधर तुम्हारे॥”

“जो खुदा को देखना हो तो मैं देखता हूँ तुमको।
मैं देखता हूँ तुमको जो खुदा को देखना हो॥”

निबन्धकार गड़रिये के सादे/पवित्र जीवन से इतने प्रभावित होते हैं कि अपनी पुस्तकीय ज्ञान को छोड़कर अनुभव का ज्ञान पाने के लिए स्वयं भी भेड़ चराने की बात करते हैं।
स्पष्ट है लेखक इस भीड़ वाली दुनिया से अलग एक सुखमय शांत इलाके में रहना चाहता है।

*3.)मजदूर की मजदूरी-जिस सुख दुःख पवित्रता से मजदूर अपना कार्य करते हैं उसका वर्णन है।
पैसे से श्रम को तोलने का एक तरह से यहाँ विरोध है।पूर्ण सिंह का मानना है कि किसी मजदूर के श्रम का पैसा देकर आप ऋण नहीं चूकता कर देते।बल्कि “मजदूरी का ऋण तो परस्पर की प्रेम-सेवा से चुकता होता है।”
जिल्दसाज,अनाथ विधवा नारी के कमीज सिलने का वर्णन यहाँ निबन्धकार ने किया है।जो कितने स्नेह से उसे सिलती है।तभी पूर्ण सिंह कहते हैं-‘कमीज सिर्फ़ उनके शरीर का नहीं-आत्मा का वस्त्र है।’
उनका मानना है कि कोई भी संध्या प्रार्थना,नमाज़ श्रम से बढ़कर नहीं है…

*4.) प्रेम-मजदूरी-मनुष्य के हाथ से बनी चीजों की तुलना में मशीन से बनी वस्तुओं की तुलना की गयी है।
निबन्धकार का मानना है जितना महत्व हाथ से बने हुए भोजन का है वह मशीन पर बने भोजन का कहाँ?
वो भी जब वह उनको प्रेम करने वाली प्रियतमा के हाथ से बना हो उसकी बात ही अलग है।
प्राकृतिक वस्तुओं के प्रति निबन्धकार का स्नहे है और मशीन की तरफ उपेक्षा भाव है।

*5.)मजदूरी और कला-‘आदमियों की तिजारत करना मूर्खों का काम है।’ निबन्धकार का मनुष्य को बेचने से तात्पर्य यहाँ मनुष्य के श्रम को प्रस्तुत करना है।श्रम का वह मूल्य नहीं है जो मशीनों का है।पहले यह आम धारणा थी कि-ईश्वर मंदिर,मस्जिद,गिरिजाघर में मिलते हैं,पूर्ण सिंह ने इस धारणा को बदलते हुए लिखा कि-मनुष्य की अनमोल आत्मा में ईश्वर बसते हैं।आजकल की कविता में नयापन नहीं है।उसमें कलारूपी धर्म की तभी वृद्धि होगी।जब मजदूर अपने दुःख सुख श्रम को कविता में लिखेंगे।कविता में पुरानेपन की पुनरावृत्ति रुकेगी और नयापन आएगा।जब चरखा काटने वाली नारी अपना गीत लिखेगी।

*6.)मजदूरी और फ़कीरी-इन दोनों के अन्योन्याश्रय सम्बन्ध को दिखाया गया है।
बासी चीजों का जिक्र यहाँ हुआ है।लोग बासी बुद्धि और बासी फ़कीरी में ही मग्न रहते हैं।जबकि उन्हें मेहनत करके कुछ नया करना चाहिए।बात तो सच है बिना मेहनत के बैठे-बैठे आप सिर्फ़ दिमाग में बेतुकी बातें उपजा सकते हैं,नया तो कदापि नहीं।उनका मानना है कि अपने व्यक्तित्व को ऐसा बनाओ कि किसी भी कुल-खानदान का नाम सदैव ना जोड़ना पड़े।
उन्होंने भिन्न-भिन्न रूपों में श्रम को उदाहरण सहित समझाया है-“मजदूरी करना जीवनयात्रा का आध्यात्मिक नियम है। जोन ऑव आर्क (Joan of Arc) की फकीरी और भेड़ें चराना, टाल्सटाय का त्याग और जूते गाँठना, उमर खैयाम का प्रसन्नतापूर्वक तंबू सीते फिरना, खलीफा उमर का अपने रंग महलों में चटाई आदि बुनना, ब्रह्माज्ञानी कबीर और रैदास का शूद्र होना, गुरु नानक और भगवान श्रीकृष्ण का कूक पशुओं को लाठी लेकर हाँकना – सच्ची फकीरी का अनमोल भूषण है।”

*7.)समाज का पालन करने वाली दूध की धारा-मजदूरी करने से हृदय पवित्र होता है।
निबन्धकार ने गुरुनानक के यात्रा में हुए एक घटना का जिक्र किया है-जिसमें लालो एक बढ़ई है और भागो एक मालदार रईस।दोनों की तुलना करते हुए वो बताते हैं कि रईस के हलवा-पूरी से लहू टपकने का तात्पर्य-किसी के श्रम का फ़ायदा उठाने से है।जबकि मोटी रोटी से दूध टपकने से तात्पर्य-समाज का पालन करने वाली दूध की धारा से है।वे एक जापानी तत्वज्ञानी के कथन का उल्लेख करते हैं-“हमारी दस करोड़ उँगलियाँ सारे काम करती हैं। उन उँगलियों ही के बल से, संभव है हम जगत् को जीत लें। (”We shall beat the world with the tips of our fingers”)”
भारत के कारीगरों को हमेशा शुद्र समझा जाता रहा यही कारण भी रहा कि यहाँ कला के क्षेत्र में हम अभी ज़्यादा विकसित नहीं हो पाए।जातीय दरिद्रता से पीड़ित होने का भी यही कारण दिखाई देता है।

*8.)पश्चिमी सभ्यता का एक नया आदर्श-पश्चिम देश एकदम से औद्योगीकरण की तरफ़ बढ़ती गयी।जिससे वहां के मजदूरों का हाल दिन-ब-दिन ख़राब होता गया।लेक़िन अब वहाँ भी लोग मशीन से ज़्यादा मनुष्यों की तरफ़ देखने लगे हैं।मशीन मनुष्यों को सुख देने के लिए बनाया गया।लेकिन उसने सबसे अधिक मनुष्यों को ही हानि भी पहुँचायी है।निबन्धकार का मानना है कि हम लोग ऐसे स्थिति से बचे।उनका मानना है कि मनुष्य ही मनुष्य को सुख दे सकता है।इंजनों ने तो मनुष्यों और कारीगरों को भूखा नंगा ही रखा है।हमें ख़ुद ही आगे बढ़कर मेहनत करना होगा।ताकि मजदूरी का प्रेम रूपी अमृत पी कर सुख से रह सके।
“है रीत आशिकों की तन मन निसार करना।
रोना सितम उठाना और उनको प्यार करना॥”

जिस ढंग से उन्होंने इस निबन्ध को सरल शब्दों में लिखा है इससे यह ज्ञात होता है कि जो साहित्य से नहीं जुड़े है।वे भी इसे आसानी से समझ सकते है।निबन्ध में भी एक अलग तरह की कौशल का उन्होंने प्रयोग किया है।अपने तत्कालीन निबन्धकारों से उन्होंने बिल्कुल अलग शैली में इसे लिखा है।
निबन्ध में सिर्फ़ पुरूष मजदूर का ही नहीं स्त्री मजदूरों का ज़िक्र उसे और प्रभावी बनाता है।पहले और दूसरे पैराग्राफ में अतिश्योक्ति लगी।क्योंकि भारत में किसानों की स्थिति कभी भी इतनी अच्छी नहीं रही कि वो इतने सुखद ढंग से जीवनयापन कर सके।लेक़िन उनके स्वभाव के सम्बंध में पूर्ण सिंह की पहुँच चरम तक पहुँचा है।उन्होंने इस निबन्ध में श्रम की प्रधानता को दिखाने की कोशिश की है।जिसमें वो पूर्ण रूप से सफल रहे हैं।क्योंकि कहावत भी है-‘कर्म ही पूजा’ है।यही सब कारण है कि सरदार पूर्ण सिंह का नाम हिंदी साहित्य के इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।

प्रासंगिकता-

विडम्बनाओं के लिए प्रासंगिकता बिल्कुल भी सही नहीं है।बावज़ूद इसके यह निबंध आज कई स्तरों पर प्रासंगिक है।आज के समय में किसानों और मजदूरों का हाल किसी से छुपा हुआ नहीं है।आज कोरोना जैसी महामारी है तो कल को कुछ और होगा लेक़िन एक दुःख जो कभी ख़त्म नहीं होगा वह मजदूरों का ही रहेगा।आज वह जहां अपना घर दुआर छोड़ कर पहुँचे थे उस शहर से या तो खदेड़े जा रहे हैं।या फ़िर भूख से व्याकुल हो तरप रहें है।दुःख हरने के लिए किसी भी फैक्ट्री में कोई मशीन नहीं बना।और जब तक आत्मा दुःखती रहेगी।मजदूर मजदूरी से प्रेम नहीं कर सकता।
“मज़दूरी से तभी प्रेम रहता है जब वह काम अपना हो या उसको अपने ढंग से करने दिया जाए,गले पर अदृश्य कट्टे को लेकर जहां मालिक खड़ा हो,वहाँ किसी भी मजदूर को अपने मजदूरी से प्रेम नहीं रहता।”