भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है : भारतेंदु हरिश्चंद्र
●हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी है
।
●हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते।
●”तुम्हें गैरों से कब फुरसत, हम अपने गम से कब खाली।
चलो बस हो चुका मिलना न हम खाली न तुम खाली॥”
●हम लोग निरी चुंगी की कतवार फेंकने की गाड़ी बन रहे हैं।
●यह समय ऐसा है कि जो पीछे रह जाएगा फिर कोटि उपाय किए भी आगे न बढ़ सकेगा। लूट की इस बरसात में भी जिस के सिर पर कम्बख्ती का छाता और आँखों में मूर्खता की पट्टी बँधी रहे उन पर ईश्वर का कोप ही कहना चाहिए।
●भगवान कहते हैं कि पहले तो मनुष्य जन्म ही दुर्लभ है सो मिला और उस पर गुरु की कृपा और उस पर मेरी अनुकूलता।
●विलायत में गाड़ी के कोचवान भी अखबार पढ़ते हैं।
●”अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
दास मलूका कहि गए सबके दाता राम॥”-मलूकदास
●दरिद्र कुटुंबी इस तरह अपनी इज्जत को बचाता फिरता है जैसे लाजवंती बहू फटें कपड़ों में अपने अंग को छिपाए जाती है। वही दशा हिंदुस्तान की है।
●”अब की चढ़ी कमान को जाने फिर कब चढ़े।
जिन चूके चहुआज इक्के मारय इक्क सर।”-चंद कवि ने पृथ्वीराज को कहा था
●धर्म में, घर के काम में, बाहर के काम में, रोजगार में, शिष्टाचार में, चाल चलन में, शरीर में,बल में, समाज में, युवा में, वृद्ध में, स्त्री में, पुरुष में, अमीर में, गरीब में, भारतवर्ष की सब आस्था, सब जाति,सब देश में उन्नति करो।
●इससे सबसे पहले धर्म की ही उन्नति करनी उचित है।
●लोगों ने धर्मनीति और समाजनीति को दूध पानी की भाँति मिला दिया है
●वास्तविक धर्म तो केवल परमेश्वर के चरणकमल का भजन है।
●जो बात हिंदुओं का नहीं मयस्सर है वह धर्म के प्रभाव से मुसलमानों को सहज प्राप्त है।
●”शौक तिल्फी से मुझे गुल की जो दीदार का था।
न किया हमने गुलिस्ताँ का सबक याद कभी॥”
●जो हिंदुस्तान में रहे चाहे किसी जाति, किसी रंग का क्यों न हो वह हिंदू है।
●परदेसी वस्तु और परदेसी भाषा का भरोसा मत रखो अपने में अपनी भाषा में उन्नति करो।
वैष्णवता और भारतवर्ष : भारतेंदु हरिश्चंद्र
●यदि विचार करके देखा जायगा तो स्पष्ट प्रकट होगा कि भारतवर्ष का सबसे प्राचीन मत वैष्णव है।
●आर्यों ने आदिकाल से सूर्य ही को अपने जगत् का सब से उपकारी और प्राणदाता समझ कर ब्रह्म माना और इन का मूल मंत्र गायत्री इसी से इन्हीं सूर्य नारायण की उपासना में कहा गया है।
●पंडितवर बाबू राजेन्द्र लाल मित्र ने वैष्णवता के काल को पाँच भाग में विभक्त किया है। यथा (१) वेदों के आदि समय की वैष्णवता, (२) ब्राहमण के समय की वैष्णवता, (३) पाणिनि के और इतिहासों के समय की वैष्णवता, (४) पुराणों के समय की वैष्णवता, (५) आधुनिक समय की वैष्णवता।
●कर्म मार्ग में फँसकर लोग अनेक देवी देवों को पूजते हैं, किन्तु बुद्धि का यह प्रकृत धर्म है कि यह ज्यों ज्यों समुज्ज्वल होती है अपने विषय मात्र को उज्ज्वल करती जाती है। थोड़ी बुद्धि बढ़ने ही से यह विचार चित्त में उत्पन्न होता है कि इतने देवी देव इस अनंत सृष्टि के नियामक नहीं हो सकते, इन का कर्त्ता स्वतंत्र कोई विशेष शक्तिसंपन्न ईश्वर है।
●अब तो वैष्णवों ही में ऐसा उपद्रव फैला है कि एक संप्रदाय के वैष्णव दूसरे संप्रदाय वाले को अपने मंदिर में और अपने खान पान में नहीं लेते और ‘सात कनौजिया नौ चूल्हे’ वाली मसल हो गई है। किन्तु काल की वर्तमान गति के अनुसार यह लक्षण उनकी अवनति के हैं। इस काल में तो इस की तभी उन्नति होगी जब इस के बाह्य व्यवहार और आडंबर में न्यूनता होगी और एकता बढ़ाई जायगी और आंतरिक उपासना की उन्नति की जायगी।
●गुरु लोगों में एक तो विद्या ही नहीं होती, जिसके न होने से शील, नम्रता आदि उनमें कुछ नहीं होते। दूसरे या तो वे अति रूखे क्रोधी होते हैं या अति बिलासलालस होकर स्त्रियों की भाँति सदा दर्पण ही देखा करते हैं। अब वह सब स्वभाव उनको छोड़ देना चाहिए, क्योंकि इस उन्नीसवीं शताब्दी में वह श्रद्धाजाढ्य अब नहीं बाकी है। अब कुकर्मी गुरु का भी चरणामृत लिया जाय वह दिन छप्पर पर गए।
●यह भी दबी जीभ से हम डरते डरते कहते हैं कि व्रत, स्नान आदि भी वहीं तक रहैं जहाँ तक शरीर को अति कष्ट न हो। जिस उत्तम उदाहरण के द्वारा स्थापक आचार्यगण ने आत्मसुख विसर्जन कर के भक्ति सुधा से लोगों को प्लावित कर दिया था उसी उदाहरण से अब भी गुरु लोग धर्म प्रचार करैं। वाह्य आग्रहों को छोड़ कर केवल आंतरिक उन्नत प्रेममय भक्ति का प्रचार करैं, देखैं कि दिग्दिगंत से हरिनाम की कैसी ध्वनि उठती है और विधर्मीगण भी इसको सिर झुकाते हैं कि नहीं और सिक्ख, कबीरपंथी आदि अनेक दल के हिन्दूगण भी सब आप से आप बैर छोड़ कर इस उन्नतसमाज में मिल जाते हैं कि नहीं।
आप : प्रतापनारायण मिश्र
●इससे अच्छे प्रकार कहिए कि जैसे ‘मैं’ का शब्द अपनी नम्रता दिखलाने के लिए बिल्ली की बोली का अनुकरण है, ‘तू’ का शब्द मध्यम पुरूष की तुच्छता व प्रीत सूचित करने के अर्थ में कुत्ते के सम्बोधन की नकल है; हम तुम संस्कृत के अहं,त्वं का अपभ्रंश है, यह वह निकट और दूर की वस्तु वा व्यक्ति के द्योतनार्थ स्वाभाविक उच्चारण है, वैसे ‘आप’ क्या है? किस भाषा के किस शब्द का शुद्ध वा अशुद्ध रूप है और आदर ही में बहुधा क्यों प्रयुक्त होता है?
●पानी में गति चाहे जितने हों, पर गति उसकी नीच ही होती है।
●इससे हमारा यह कथन कोई खंडन नहीं कर सकता कि प्रेम-समाज में “आप” का आदर नहीं है, “तू” ही प्यारा है।
●हमारे प्रांत में बहुत से उच्च वंश के बालक भी अपने पिता को अप्पा कहते हैं, उसे कोई-कोई लोग समझते हैं कि मुसलमानों के सहवास का फल है। पर उनकी यह समझ ठीक नहीं है। मुसलमान भाइयों के लड़के कहते हैं अब्बा और हिंदू सन्तान के पक्ष में ‘बकार’ का उच्चारण तनिक भी कठिन नहीं होता, यह अंग्रेजों की तकार और फारस वालों की टकार नहीं है कि मुँह से ही न निकले, और सदा मोती का मोटी अर्थात स्थूलांगी स्त्री और खस की टट्टी का तत्ती अर्थात गरम ही हो जाए। फिर अब्बा को अप्पा कहना किस नियम से होगा। हाँ आप्त से आप और अप्पा तथा आपा की सृष्टि हुई है, उसी को अरबवालों ने अब्बा में रूपांतरित कर लिया होगा। क्योंकि उनकी वर्णमाला में “पकार” (पे) नहीं होती।
धोखा : प्रतापनारायण मिश्र
●धोखा शब्द के लिए वे लिखते हैं- इन दो अक्षरों में भी जाने कितनी शक्ति है कि इनकी लपेट से बचना असम्भव न हो तो भी महाकठिन अवश्य है।
●आश्चर्य को मोटी भाषा में धोखा ही कहते हैं।
●शुद्ध निर्भ्रम वह कहलाता है, जिसके विषय में भ्रम का आरोप भी न हो सके, पर उसके अस्तित्व तक में नास्तिकों को सन्देह और आस्तिकों को निश्चित ज्ञान का अभाव रहता है; फिर वह निर्भ्रम कैसा? और जब वही भ्रम से पूर्ण है, तब उसके बनाये संसार में भ्रम अर्थात धोखे का अभाव कहाँ?
●भ्रमोत्पादक भ्रम स्वरूप भगवान के बनाये हुए भव (संसार) में जो कुछ है भ्रम ही है।
●लोक और परलोक का मजा भी धोखे में पड़े रहने से प्राप्त होता है।
●बहुत ज्ञान छाँटना सत्यानाश की जड़ है।
●जो धोखा खाता है वह अपना कुछ-न-कुछ गँवा बैठता है और जो धोखा देता है उसकी एक-न-एक दिन कलई खुले बिना नहीं रहती है। तथा हानि सहना वा प्रतिष्ठा खोना दोनों बातें बुरी हैं, जो बहुधा इसके सम्बन्ध में हो ही जाया करती हैं।
●जैसे काजल की कोठरी में रहने वाला बेदाग नहीं रह सकता वैसे ही भ्रमात्मक भवसागर में रहनेवाला अल्प-सामर्थ्य जीवन का भ्रम से सर्वथा बचा रहना असम्भव है और जो जिससे बच नहीं सकता उससे उसकी निंदा करना नीतिविरुद्ध है।
●कोई काम या वस्तु वास्तव में भली अथवा बुरी नहीं होती, केवल उसके व्यवहार का नियम बनने-बिगड़ने में बनाव-बिगाड़ हो जाया करता है।
●दो एक बार धोखा खाके धोखेबाजी की हिकमतें सीख लो और कुछ अपनी ओर से झपकी-फुदनी जोड़कर ‘उसी की जूती उसी का सर’ कर दिखाओ तो बड़े भारी अनुभवशाली, वरंच ‘गुरु गुड़ ही रहा तो चेला शक्कर हो गया’ का जीवित उदाहरण कहलाओगे।
साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है : बालकृष्ण भट्ट
●प्रत्येक देश का साहित्य उस देश के मनुष्यों के हृदय का आदर्श रूप है।
●इसलिए साहित्य यदि जन समूह (nation) के चित्त का चित्रपट कहा जाय तो संगत है।
●किसी देश का इतिहास पढ़ने से केवल बाहरी हाल हम उस देश का जान सकते हैं पर साहित्य के अनुशीलन से कौम के सब समय-समय के आभ्यांतरिक भाव हमें परिस्फुट हो सकते हैं।
●और इसी वेद और लोक के अलग-अलग भेद से साबित होता है कि संस्कृत किसी समय प्रचलित भाषा थी जो लोगों के बोलचाल के बर्ताव में लाई जाती थी।
●संस्कृत के साहित्य के लिए विक्रमादित्य का समय ‘अगस्टन पीरियड’ कहलाता है अर्थात् उस समय संस्कृत, जहाँ तक उसके लिए परिष्कृत होना संभव था, अपनी पूर्ण सीमा तक पहुँच गई थी।
●हमारी एक हिन्दू जाति के असंख्य टुकड़े होते-होते यहाँ तक खण्ड हुए कि अब तक नए-नए धर्म और मत-प्रवर्तक होते ही जाते हैं।
●अतएव संस्कृत नाटकों में नीच पात्र की भाषा प्राकृत और उत्तम पात्र ब्राम्हण या राजा आदि की भाषा संस्कृत रक्खी गई है।
●ब्रजभाषा में यद्यपि कुछ मिठास है पर यह इतनी ज़नानी बोली है कि इसमें सिवाय श्रृंगार के दूसरा रस आ ही नहीं सकता।
शिवशम्भु के चिट्ठे : बालमुकुंद गुप्त
◆बनाम लार्ड कर्जन
●आज शिवशम्भु बुलबुलों का राजा ही नहीं, महाराजा है।
●आपने माई लार्ड! जबसे भारतवर्ष में पधारे हैं, बुलबुलों का स्वप्न ही देखा है या सचमुच कोई करनेके योग्य काम भी किया है
●आप बारम्बार अपने दो अति तुम तराक से भरे कामों का वर्णन करते हैं। एक विक्टोरिया मिमोरियल हाल और दूसरा दिल्ली-दरबार।
●इस देशकी प्रजा के हृदयमें कोई स्मृति-मन्दिर बना जाने की शक्ति आप में है।
●इस दरिद्र देशके बहुत-से धन की एक ढेरी है, जो किसी काम नहीं आ सकती।
◆श्रीमान्-का स्वागत
●जो अटल है, वह टल नहीं सकती। जो होनहार है, वह होकर रहती है।
●”जो कुछ खुदा दिखाये, सो लाचार देखना।”
●जुलूस वह दिल्ली में निकलवा चुके हैं, उसमें सबसे ऊंचे हाथीपर बैठ चुके हैं, उससे ऊंचा हाथी यदि सारी पृथिवीमें नहीं तो भारतवर्ष में तो और नहीं है। इसी से फिर किसी हाथी पर बैठनेका श्रीमान्-को और क्या चाव हो सकता है?-लॉर्ड कर्जन के संदर्भ में
●उपकार का बदला देना महत् पुरुषों का काम है।
●अब तक गरीब पढ़ते थे, इससे धनियों की निन्दा होती थी कि वह पढ़ते नहीं। अब गरीब न पढ़ सकेंगे, इससे धनी पढ़े न पढ़े उनकी निन्दा न होगी।
●चायके प्रचार की भांति मोटरगाड़ी के प्रचार की इस देश में बहुत जरूरत है।
●भारतवासी जरा भय न करें, उन्हें लार्ड कर्जन के शासनमें कुछ करना न पड़ेगा। आनन्द ही आनन्द है। चैन से भंग पियो और मौज उड़ाओ। नजीर खूब कह गया है –
●कुंडीके नकारे पे खुतकेका लगा डंका।
नित भंग पीके प्यारे दिन रात बजा डंका।।
पर एक प्याला इस बूढ़े ब्राह्मण को देना भूल न जाना।
[‘भारतमित्र’, 26 नवम्बर, 1904 ई]
◆वैसराय का कर्तव्य
●विद्वान बुद्धिमान और विचारशील पुरुषों के चरण जिस भूमि पर पड़ते हैं, वह तीर्थ बन जाती है।
●आपमें उक्त तीन गुणों के सिवा चौथा गुण राजशक्तिका है।
●शिवशम्भुको कोई नहीं जानता। जो जानते हैं, वह संसार में एकदम अनजान हैं। उन्हें कोई जानकर भी जानना नहीं चाहता।
●यद्यपि आप कहते हैं, कि यह कहानी का देश नहीं कर्तव्य का देश है।
●यह वह देश है, जहां की प्रजा एक दिन पहले रामचन्द्र के राजतिलक पानेके आनन्द में मस्त थी और अगले दिन अचानक रामचन्द्र बनको चले तो रोती रोती उनके पीछे जाती थी।
●[‘भारतमित्र’, 17 सितम्बर, 1904 ई.]
◆पीछे मत फेंकिये
●प्रजा की चाहे कैसी ही दशा हो, पर खजाने में रुपये उबले पड़ते हैं।
●सारांश यह कि लार्ड कार्नवालिस के समय और आपके समय में बड़ा ही भेद हो गया है।
●हिन्दुस्थानी फारसी पढ़के ठीक फारिस वालों की भांति बोल सकते हैं, कविता कर सकते हैं।
●एक भी अंग्रेज ऐसा नहीं है, जो हिन्दुस्थानियों की भांति साफ हिन्दी बोल सकता हो। किसी बातमें हिन्दुस्थानी पीछे रहनेवाले नहीं हैं। हां दो बातों में वह अंग्रेजोंकी नकल या बराबरी नहीं कर सकते हैं। एक तो अपने शरीरके काले रंगको अंग्रेजों की भांति गोरा नहीं बना सकते और दूसरे अपने भाग्यको उनके भाग्यमें रगड़कर बराबर नहीं कर सकते।
●समयके महासमुद्र में मनुष्य की आयु एक छोटी-सी बूँदकी भी बराबरी नहीं कर सकती।
●[‘भारतमित्र’, 17 दिसम्बर,1904 ई.]
◆आशा का अन्त
●रोगी को रोग से कैदी को कैद से, ऋणी को ऋणसे कंगाल को दरिद्रता से, – इसी प्रकार हरेक क्लेशित पुरुषको एक दिन अपने क्लेशसे मुक्त होने की आशा होती है।
●किस्मत पे उस मुसाफिरे खस्ताके रोइये।
जो थक गया हो बैठके मंजिलके सामने।’
●माई लार्ड! इस देश की दो चीजों में अजब तासीर है। एक यहां के जलवायु की और दूसरे यहां के नमक की।
●इस देश के कितने ही अभागे सचमुच अभागे नहीं, वरंच अच्छी मजदूरी के लालच से जबरदस्ती अकाल पीड़ितों में मिलकर दयालु सरकारको हैरान करते हैं। इससे मजदूरी कड़ी की गई।
●गिरा के ठोकर मारना क्या सज्जन और सत्यवादी का काम है? अपनी सत्यवादिता प्रकाश करने के लिये दूसरे को मिथ्यावादी कहना ही क्या सत्यवादिता का सबूत है?●पराधीनता की सबके जी में बड़ी भारी चोट है।
●[‘भारतमित्र’, 25 फरवरी, 1905 ई.]
◆एक दुराशा
●चलो-चलो आज, खेलें होली कन्हैया घर।
●माई लार्ड को ड्यूटी का ध्यान दिलाना सूर्य को दीपक दिखाना है।
●सारे भारत की बात जाय, इस कलकत्ते ही में देखने की इतनी बातें हैं कि केवल उनको भली भांति देख लेनेसे भारतवर्षकी बहुतसी बातोंका ज्ञान होसकता है।
●माई लार्ड अपने शासन-काल का सुन्दर से सुन्दर सचित्र इतिहास स्वयं लिखवा सकते हैं,वह प्रजाके प्रेम की क्या परवा करेंगे?
●बमुलाजिमाने सुलतां कै रसानद, ईं दुआरा?
कि बशुक्रे बादशाही जे नजर मरां गदारा।
【’भारतमित्र’,18 मार्च, 1905 ई.】
◆विदाई सम्भाषण
●बिछड़न-समय बड़ा करुणोत्पादक होता है।
●अलिफलैला के अलहदीन ने चिराग रगड़कर और अबुलहसन ने बगदाद के खलीफा की गद्दी पर आंख खोलकर वह शान न देखी, जो दिल्ली दरबार में आपने देखी।
●[‘भारतमित्र’, 2 सितम्बर, 1905 ई.]
◆बंग विच्छेद
●गत 16 october को बंगविच्छेद या बंगालका पार्टीशन हो गया।
●आपके शासनकाल में बंगविच्छेद इस देशके लिए अन्तिम विषाद और आपके लिए अन्तिम हर्ष है।
●मुर्शिदाबाद जो आज एक लुटा हुआ सा शहर दिखाई देता है, कुछ दिन पहले इसी बंग देश की राजधानी था।
●दो हजार वर्ष नहीं हुए इस देश का एक शासक कह गया है -“सैकड़ों राजा जिसे अपनी-अपनी समझकर चले गये, परन्तु वह किसीके भी साथ नहीं गई, ऐसी पृथिवी के पाने से क्या राजाओं को अभिमान करना चाहिये?
●यह बंगविच्छेद बंगका विच्छेद नहीं है। बंगनिवासी इससे विच्छिन्न नहीं हुए, वरंच और युक्त हो गये।
●भारतवासियों के जी में यह बात जम गई कि अंग्रेजों से भक्तिभाव करना वृथा है, प्रार्थना करना वृथा है और उनके आगे रोना गाना वृथा है। दुर्बलकी वह नहीं सुनते।
●[‘भारतमित्र’, 21 अक्तूबर, 1905 ई.]
◆लार्ड मिन्टो का स्वागत
●भाग्यवानों से कुछ न कुछ सम्बन्ध निकाल लेना संसार की चाल है।
●आशा मनुष्यको बहुत लुभाती है, विशेषकर दुर्बलको परम कष्ट देती है।
●[‘भारतमित्र’, 23 सितम्बर, 1905 ई.]
◆मार्ली साहबके नाम
●निश्चित विषय।
विज्ञवरेषु, साधुवरेषु!
●एक विद्वान सज्जन भारत का सर्व प्रधान शासक होता है।
●राजनीति बड़े-बड़े सत्यवादी साहसी विद्वानोंको भी गधा गधी एक बतलाने वालों के बराबर कर देती है।
● अब भारतवासियों के जी में भली-भांति पक्की होती जाती है कि उनका भला न कन्सरवेटिव ही कर सकते हैं और न लिबरल ही।
●झूठा है वह हकीम जो लालचसे मालके,
अच्छा कहे मरीजके हाले तबाहको।
●अपने सिरका तो हमें कुछ गम नहीं,
खम न पड़ जाये तेरी तलवारमें।
●[‘भारतमित्र’, 16 फरवरी, 1907 ई.]
◆आशीर्वाद
●भारत! तेरी वर्तमान दशामें हर्षको अधिक देर स्थिरता कहां?
●बर जमीने कि निशानेकफे पाये तो वुवद।
सालहा सिजदये साहिब नजरां ख्वाहद बूद।।
(जिस भूमिपर तेरा पदचिह्न है, दृष्टिवाले सैकड़ों वर्षतक उसपर अपना मस्तक टेकेंगे।)
●जो जेल, चोर डकैतों, दुष्ट हत्यारोंके लिये है जब उसमें सज्जनसाधु, शिक्षित, स्वदेश और स्वजातिके शुभचिन्तकोंके चरण स्पर्श हों तो समझना चाहिये कि उस स्थानके दिन फिरे।
●[‘भारतमित्र’, 30 मार्च, 1907 ई.]
◆शाइस्ताखांका खत – 1
●यह कायदा है कि दूसरी कौम की हुकूमत हीको लोग जुल्म से भी बढ़कर जुल्म समझते हैं।
●खयाल रखो कि दुनिया चन्द रोजा है।अखिर सबको उस दुनिया से काम है, जिसमें हम हैं। सदा कोई रहा न रहेगा। नेकनामी या बदनामी रह जावेगी।
●शाइस्ताखां – अज जन्नत।
【भारतमित्र’, 25 नवम्बर, 1905 ई.】
◆शाइस्ताखांका खत – 2
●बहकर दूर निकल गया हुआ नदीका पानी क्या कभी फिर लौटा हैं?
●अपने मुल्कको जाओ और खुदा तौफीक दे तो हिन्दुस्तानके लोगोंको कभी कभी दुआये खैरसे याद करना। वस्सलाम्!
●शाइस्ताखां – अज जन्नत।
[‘भारतमित्र’, 18 अगस्त, 1906 ई.]
◆सर सैय्यद अहमदका खत
●अलीगढ़ कालिजके लड़कों के नाम-
मेरे प्यारो, मेरी आंखों के तारो, मेरी कौम के नौनिहालो!
जिन्दगी में मैंने इज्जत,नामवरी बहुत कुछ हासिल की,मगर यह कहूंगा और मेरा यह कहना बिलकुल सच है कि तुम्हारी बेहतरी की तदबीर ही में मैंने अपनी उमर पूरी कर दी।
●चि मिकदार खूं दर अमद खुर्दा बाशम।
कि बर खाकम आई ओ मन मुर्दा बाशम।।
●यह जंजीरें कौमी तरक्की के पांवों में अपने ही हाथों से डाली गई हैं, दूसरा कोई इसके लिये कसूरवार नहीं ठहर सकता।
●न जिल्लतसे नफरत न इज्जतका अरमां।
●हिन्दुओं से मेल रखना मुझे नापसन्द नहीं था।
●मेरे अजीजो! जमानेकी रफ्तारको कोई रोक नहीं सकता। वह सबको अपने रास्तेपर घसीट ले जाती है।
●सय्यद अहमद – अज जन्नत
[‘भारतमित्र’, 9 मार्च, 1907 ई.]
धर्म और समाज : चंद्रधर शर्मा गुलेरी
●समाज के लिए धर्म की आवश्यकता है या नहीं? इस प्रश्न पर कुछ अपने विचार प्रकट करना ही आज इस लेख का उद्देश्य है।
●बहुत-सी बातों के समान धर्म भी एक व्यक्तिगत बात मानी जाती है, जिसका जी चाहे, किसी धर्म को माने, चाहे न माने। मानने से कोई विशेष स्वत्व पैदा नहीं होते, न मानने से कोई हानि नहीं होती।
●प्राचीन आर्य लोग धर्म को केवल परलोक का ही साधन नहीं मानते थे, किंतु इस लोक का बड़े-से-बड़ा सुख भी धर्म के बिना उनकी दृष्टि में हेय था।
●हम यहाँ पर कह देना चाहते हैं कि मत या सम्प्रदाय के अर्थ में धर्म शब्द का प्रयोग करना भी हमने अधिकतर विदेशियों ही से सीखा है, जब विदेशी भाषाओं के ‘मज़हब’, ‘रिलीजन’, शब्द यहाँ प्रचलित हुए, तब भूले से या स्पर्धा से हम उनके स्थान में ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग करने लगे। परन्तु हमारे प्राचीन ग्रंथों में, जो विदेशियों के आने से पूर्व रचे गए थे, कहीं पर भी ‘धर्म’ शब्द मत, विश्वास या सम्प्रदाय के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ, प्रत्युत उनमें सर्वत्र स्वभाव और कर्तव्य इन दो अर्थों में इसका प्रयोग पाया जाता है।
●जैसे वृक्ष का धर्म ‘जड़ता’ और पशु का धर्म ‘पशुता’ कहलाती है, ऐसे ही मनुष्य का धर्म ”मनुष्यता” है।
●(विशेष धर्म यानी कर्तव्य)
●अपने कर्तव्य से उदासीन होकर दूसरों का अनुकरण करना, चाहे वह अपने से श्रेष्ठ भी हों, अनधिकार चर्चा है।
●उस समय हिंदू धर्म इतना उदार था कि वह बौद्ध और जैन जैसे निरीश्वरवादी मतों को भी अपने क्रोड़ में स्थान दे सकता था, पर आजकल का हिन्दू धर्म साकारवादी और निराकारवादी को मिलकर नहीं रहने देता। पहले का हिन्दू धर्म सदाचारी को धर्मात्मा और ज्ञानी को मोक्ष का अधिकारी (चाहे वह कोई हो) मानता था, पर आजकल का हिन्दू धर्म अपने लक्ष्य से ही च्युत होकर या तो मतमतान्तर के शुष्कवाद विवाद में या पुरानी लकीर को पीटने में अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रहा है।
●प्रत्येक पदार्थ की सत्ता उसके धर्म पर अवलम्बित होती है और ऐसे धर्म की आवश्यकता न केवल समाज को है, किंतु प्रत्येक व्यक्ति को है। जहाँ राष्ट्र या समाज अपने उस स्वभाविक धर्म का पालन करें, वहाँ कोई व्यक्ति भी उसकी उपेक्षा न करे।
कवि कर्तव्य : महावीर प्रसाद द्विवेदी
●इस लेख को हम चार भागों में विभक्त करेंगे :- छंद, भाषा, अर्थ और विषय
◆छंद
●गद्य और पद्य दोनों में ही कविता हो सकती है
●कविता का लक्षण जहाँ कहीं पाया जाय, चाहे वह गद्य में हो चाहे पद्य में वही काव्य है।
●जैसे समयविशेष में रागविशेष के गाये जाने से चित्त अधिक चमत्कृत होता है, वैसे ही वर्णन के अनुकूल वृत्त-प्रयोग करने से कविता का आस्वादन करने वालों को अधिक आनन्द मिलता है।
●संस्कृत ही हिंदी की माता है।
●किसी भी प्रचलित परिपाटी का क्रम भंग होता देख प्राचीनता के पक्षपाती खड़े होते हैं और नई चाल के विषय में नाना प्रकार की कुचेष्टाएँ और दोषोद्भावनाएँ करने लगते हैं, यह स्वभाविक बात है।
◆भाषा
●कवि को ऐसी भाषा लिखनी चाहिए जिसे सब कोई सहज में समझ ले और अर्थ को हृदयंगम कर सके।
●क्लिष्ट की अपेक्षा सरल लिखना ही सब प्रकार से वांछनीय है।
●कविता एक अपूर्व रसायन है।
●जो प्रबल होता है वह निर्बल को अवश्य अपने वशीभूत कर लेता है।
◆अर्थ
●सौरस्य ही कविता का प्राण है। जिस पद्य में अर्थ का चमत्कार नहीं वह कविता नहीं। कवि जिस विषय का वर्णन करे उस विषय से उसका तादात्म्य हो जाना चाहिए, ऐसा न होने से अर्थ-सौरस्य नहीं आ सकता।
●अर्थ के सौरस्य ही की ओर कवियों का ध्यान अधिक होना चाहिए, शब्दों के आडम्बर की ओर नहीं।
●रस ही कविता का सबसे बड़ा गुण है।
◆विषय
●कविता का विषय मनोरंजक और उपदेशजनक होना चाहिए। यमुना के किनारे-किनारे केलि-कौतूहल का अद्भूत वर्णन बहुत हो चुका। न परकीयाओं पर प्रबन्ध लिखने की अब कोई आवश्यकता है और न स्वकीयाओं के ‘गतागत’ के पहेली बुझाने की।
●अच्छी समस्यापूर्ति करना असाधारण प्रतिभावान का काम है।
2.
●कवि की कल्पना शक्ति तीव्र होती है।
●आजकल हिंदी संक्रांति की अवस्था में है। हिंदी कवि का कर्तव्य यह है कि वह लोगों की रुचि का विचार रखकर अपनी कविता ऐसी सहज और मनोहर रचे कि साधारण पढ़े-लिखे लोगों में भी पुरानी कविता के साथ-साथ नई कविता पढ़ने का अनुराग उत्पन्न हो जाय।
●सारांश यह है कि आजकल की कविता में शास्त्रोंक्त गुणों को छोड़कर नीचे लिखे हुए गुण हों तो सम्भव है कि वह लोकप्रिय होगी-
- कविता में साधारण लोगों की अवस्था, विचार और मनोविकारों का वर्णन हो।
- उसमें धीरज, साहस, प्रेम और दया और आदि गुणों के उदाहरण रहें।
- कल्पना, सूक्ष्म और उपमादिक अलंकार गूढ़ न हो।
- भाषा सहज, स्वभाविक और मनोहर हो।
- छंद सीधा, परिचित, सुहावना और वर्णन अनुकूल हो।
आचरण की सभ्यता : सरदार पूर्ण सिंह
●विद्या, कला, कविता, साहित्य, धन और राजस्व से भी आचरण की सभ्यता अधिक ज्योतिष्मती है।
●आचरण की सभ्यतामय भाषा सदा मौन रहती है। इस भाषा का निघण्टु शुद्ध श्वेत पत्रों वाला है। इसमें नाममात्र के लिए भी शब्द नहीं। यह सभ्याचरण नाद करता हुआ भी मौन है, व्याख्यान देता हुआ भी व्याख्यान के पीछे छिपा है, राग गाता हुआ भी राग के सुर के भीतर पड़ा है। मृदु वचनों की मिठास में आचरण की सभ्यता मौन रूप से खुली हुई है। नम्रता, दया, प्रेम और उदारता सब के सब सभ्याचरण की भाषा के मौन व्याख्यान हैं। मनुष्य के जीवन पर मौन व्याख्यान का प्रभाव चिरस्थायी होता है और उसकी आत्मा का एक अंग हो जाता है।
●आचरण के मौन व्याख्यान से मनुष्य को एक नया जीवन प्राप्त होता है। नये-नये विचार स्वयं ही प्रकट होने लगते हैं। सूखे काष्ठ सचमुच ही हरे हो जाते हैं। सूखे कूपों में जल भर आता है। नये नेत्र मिलते हैं।
●मौनरूपी व्याख्यान की महत्ता इतनी बलवती, इतनी अर्थवती और इतनी प्रभाववती होती है कि उसके सामने क्या मातृभाषा, क्या साहित्यभाषा और क्या अन्य देश की भाषा सब की सब तुच्छ प्रतीत होती हैं।
●केवल आचरण की मौन भाषा ही ईश्वरीय है।
●प्रेम की भाषा शब्द-रहित है। नेत्रों की, कपोलों की, मस्तक की भाषा भी शब्द-रहित है। जीवन का तत्व भी शब्द से परे है।
●सारे वेद और शास्त्र भी यदि घोलकर पी लिए जायँ तो भी आदर्श आचरण की प्राप्ति नहीं होती।
●ईश्वरीय मौन शब्द और भाषा का विषय नहीं। यह केवल आचरण के कान में गुरुमंत्र फूँक सकता है। वह केवल ऋषि के दिल में वेद का ज्ञानोदय कर सकता है।
●प्रभाव शब्द का नहीं पड़ता – प्रभाव तो सदा सदाचरण का पड़ता है। साधारण उपदेश तो, हर गिरजे, हर मंदिर और हर मस्जिद में होते हैं, परंतु उनका प्रभाव तभी हम पर पड़ता है जब गिरजे का पादड़ी स्वयं ईसा होता है – मंदिर का पुजारी स्वयं ब्रह्मर्षि होता है – मसजिद का मुल्ला स्वयं पैगंबर और रसूल होता है।
●पवित्र अपवित्रता उतनी ही बलवती है, जितनी कि पवित्र और पवित्रता।
●कोई भी संप्रदाय आचरण-रहित पुरुषों के लिए कल्याणकारक नहीं हो सकता और आचरण वाले पुरुषों के लिए सभी धर्म-संप्रदाय कल्याणकारक हैं।
● सच्चा साधु धर्म को गौरव देता है, धर्म किसी को गौरवान्वित नहीं करता।
● प्रकृति को मिथ्या करके नहीं उड़ाना; उसे उड़ाकर मिथ्या करना है।
●आलस्य मृत्यु है।
श्रद्धा और भक्ति : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
●किसी मनुष्य में जन-साधारण से विशेष गुण व शक्ति का विकास देख उसके सम्बन्ध में जो एक स्थायी आनंद-पद्धति हृदय में स्थापित हो जाती है उसे श्रद्धा कहते हैं।
●इससे सिद्ध होता है कि जिन कर्मों के प्रति श्रद्धा होती है उनका होना संसार को वांछित है। यही विश्वकामना श्रद्धा की प्रेरणा का मूल है।
●यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण है।
●प्रेमी प्रिय के सम्पूर्ण जीवन-क्रम के सतत साक्षात्कार का अभिलाषी होता है।
●बात यह है कि प्रेम एकमात्र अपने ही अनुभव पर निर्भर रहता है; पर श्रद्धा अपनी सामाजिक विशेषता के कारण दूसरों के अनुभव पर भी जगती है।
●समझने की बात है कि इमारत हाथ पर लेकर देखने की चीज नहीं है, दस-पाँच हाथ दूर पर खड़े होकर देखने की चीज है।
●विद्वता किसी विषय की बहुत-सी बातों की जानकारी का नाम है, जिसका संचय बहुत कष्ट, श्रम और धारणा से होता है।
●श्रद्धा-भाजन पर श्रद्धावान अपना किसी प्रकार अधिकार नहीं चाहता, पर प्रेमी प्रिय के हृदय पर अपना अधिकार चाहता है।
●श्रद्धालु अपने भाव में संसार को भी सम्मिलित करना चाहते हैं, पर प्रेमी नहीं।
●अतः श्रद्धा धर्म की पहली सीढ़ी है।
●मनुष्य किसी ओर तीन प्रकार से प्रवृत्त होता है – मन से, वचन से और कर्म से।
●श्रद्धा सत्कर्म या सद्गुण ही का मूल्य है जिससे और किसी प्रकार का सौदा नहीं हो सकता।
●श्रद्धा प्रदर्शित करने का जितना विस्तृत सामाजिक अधिकार हमें प्राप्त है उतना उसके विपरीत भाव अश्रद्धा या घृणा प्रकट करने का नहीं, क्योंकि श्रद्धा यदि हमने भूल से या स्वार्थवश प्रकट की तो किसी की उतनी हानि नहीं, पर यदि घृणा भूल से या द्वेष-वश प्रकट की तो व्यर्थ का असंतोष और दुःख फैल सकता है।
●श्रद्धा के विषय तीन है- शील, प्रतिभा और साधन-संपत्ति। शील या धर्म से समाज की स्थिति, प्रतिभा से रंजन और साधन-संपत्ति से शील-साधन और प्रतिभा-विकास दोनों की संभावना है।
●श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है।
●भक्त वे ही कहला सकते हैं जो अपने जीवन का बहुत अंश स्वार्थ (पारिवारिक व शारीरिक सुख आदि) से विभक्त करके किसी के आश्रय से किसी के आश्रय से किसी ओर लगा सकते हैं इसी का नाम है आत्मनिवेदन।
●श्रद्धालु महत्व को स्वीकार करता है, पर भक्त महत्व की ओर अग्रसर होता है।
●जो उच्च पथ पहले कष्टकर और श्रम-साध्य जान पड़ता है वही भक्ति के बल से मनोहर लगने लगता है।
●गुण प्रत्यक्ष नहीं होता, उसके आश्रय और परिणाम प्रत्यक्ष होते हैं।
●अनुभूति मन की पहली क्रिया है, संकल्प-विकल्प दूसरी।
●दुराचारी भी यदि अपने दुराचार का फल संसार के सामने पूर्ण रूप से भोग लेता है तो समाज के लिए उपयोगी ठहर जाता है।
●श्रद्धा का व्यापार स्थल विस्तृत है, प्रेम का एकांत। प्रेम में घनत्व अधिक है और श्रद्धा में विस्तार।
●जहाँ धर्म-भाव है। वहीं ईश्वर की भावना है। जिन प्राणियों में जिन जिन भावों का विकास नहीं हुआ है उनमें उसकी चरितार्थता की आवश्यकता प्रकृति नहीं समझती।
●हमारे यहाँ भक्ति-विधान के अंतर्गत श्रवण, कीर्तन, स्मरण सेवा, अर्चन बन्दन, दास्य, सख्य और आत्म-निवेदन ये नौ बातें ली गई है।
●श्रद्धा में दृष्टि पहले कर्मों पर से होती हुई श्रद्धेय तक पहुँचती है और प्रीति में प्रिय पर से होती हुई उसके कर्मों आदि पर आ जाती है। एक में व्यक्ति को कर्मों द्वारा मनोहरता प्राप्त होती है, दूसरी में कर्मों को व्यक्ति द्वारा। एक में कर्म प्रधान है, दूसरी में व्यक्ति।
नाखून क्यों बढ़ते हैं?:हजारी प्रसाद द्विवेदी
●अल्पज्ञ पिता बड़ा दयनीय जीव होता है।
●ये अभागे नाखून क्यों इस प्रकार बढ़ा करते है। काट दीजिए, वे चुपचाप दंड स्वीकार कर लेंगे, पर निर्लज्ज अपराधी की भाँति फिर छूटते ही सेंध पर हाजिर। आखिर ये इतने बेहया क्यों हैं?
●पलीते-वाली बंदूकों ने, कारतूसों ने, तोपों ने, बमों ने, बमवर्षक वायुयानों ने इतिहास को किस कीचड़-भरे घाट तक घसीटा है, यह सबको मालूम है।
●वे कंबख्त रोज बढ़ते हैं, क्योंकि वे अंधे हैं, नहीं जानते कि मनुष्य को इससे कोटि-कोटि गुना शक्तिशाली अस्त्र मिल चुका है।
●मुझे ऐसा लगता है कि मनुष्य अब नाखून को नहीं चाहता। उसके भीतर बर्बर-युग का कोई अवशेष रह जाय, यह उसे असह्य है।
●मनुष्य की पशुता को जितनी बार भी काट दो, वह मरना नहीं जानती।
●गौड़ देश के लोग उन दिनों बड़े-बड़े नखों को पसंद करते थे और दाक्षिणात्य लोग छोटे नखों को।
●नाखून का बढ़ना उसमें से एक है, केश का बढ़ना दूसरा है, दाँत का दुबारा उठना तीसरा है, पलकों का गिरना चौथा है। और असल में सहजात वृत्तियाँ अनजान की स्मृतियाँ को ही कहते हैं।
●मेरी निर्बोध बालिका ने मानो मनुष्य जाति से ही प्रश्न किया है – जानते हो, नाखून क्यों बढ़ते हैं? यह हमारी पशुता के अवशेष हैं।
●इंडिपेंडेन्स’ का अर्थ है अनधीनता या किसी की अधीनता का अभाव, पर ‘स्वाधीनता’ शब्द का अर्थ है अपने ही अधीन रहना।
●सहजात वृत्ति अनजानी स्मृतियों का ही नाम है।
●पुराने का ‘मोह’ सब समय वांछनीय ही नहीं होता।
● कालिदास ने कहा था कि सब पुराने अच्छे नहीं होते, सब नए खराब ही नहीं होते।
●महाभारत में इसीलिए निर्वेर भाव, सत्य और अक्रोध को सब वर्णों का सामान्य धर्म कहा है :
-एतद्धि त्रितयं श्रेष्ठं सर्वभूतेषु भारत।
निर्वैरता महाराज सत्यमक्रोध एव च।।
●गौतम ने ठीक ही कहा था कि मनुष्य की मनुष्यता यही है कि वह सबके दुख सुख को सहानुभूति के साथ देखता है।
यह आत्म निर्मित बंधन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है।
●प्रेम ही बड़ी चीज है, क्योंकि वह हमारे भीतर है। उच्छृंखलता पशु की प्रवृत्ति है, ‘स्व’ का बंधन मनुष्य का स्वभाव है।
●मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्री में है, त्याग में है, अपने को सबके मंगल के लिए निःशेष भाव से दे देने में है।
●नाखून बढ़ते हैं तो बढ़ें, मनुष्य उन्हें बढ़ने नहीं देगा।
महाकवि की तर्जनी : कुबेरनाथ राय
रवीन्द्रनाथ ने रामायण के बारे में एक स्थल पर लिखा है कि रामायण में सारे पराक्रम सारी उपलब्धियों के मध्य जो सत्य स्थापित होता है, वह है ‘त्याग’। प्राप्ति नहीं त्याग ही रामायण की मूल स्थापना है।
दुर्वासा ऋषि ने राम के संबंध में दशरथ से बहुत पूर्व एक बात कही थी कि यह राम महान् यशस्वी और महान् अभागा होगा, इसे दुःख ही दुःख लिखा है। इसे सब कुछ को और सब कोई को, सीता-लक्ष्मण तक को त्यागना पडेगा।
भविष्यति दृढं रामो दुःख प्रायो विसौख्य भाक
प्राप्स्यते च महाबाहुर्विप्रयोगं प्रियैर्द्रुमम्।।११।।
त्वां चैव मैथिली चैव शत्रुघन भरतौ तथा
सत्यजिष्यति धर्मात्मा कालेन महता महान्।।१२।।
इदं त्वामि न वक्तव्यं सौमित्रे भरतेऽपिवा
राज्ञा वो व्याहृतं वाक्यं दुर्वासा यदुवाचह।।१३।।
इसी से मेरा आधुनिक साहित्यकार से निवेदन है कि तुम कभी भी किसी भी ‘स्थापित व्यवस्था’ के प्रति प्रतिबद्ध होकर, उसका पुर्जा बनकर मत खटो, तुम कभी भी अपने आत्मसत्य एवं ‘स्व-धर्म’ के प्रति झूठ मत बनो अन्यथा राम (?) और भीष्म-द्रोण की तरह तुम भी विकृत और चपटे हो जाओगे। अतः ‘‘स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा देखु विहंग विचारी! बाज पराये पानि परि तू पंच्छीन न मार।’’
व्यवस्था की गुलामी का ही दूसरा नाम मर्यादा है।
एक बार कुंभकर्ण ने रावण से पूछा ‘‘तुम माया द्वारा राम का वेश धारण करके क्यों नहीं सीता को छलपूर्वक भोगते हो?’’ रावण का उत्तर थाः ‘‘क्या करूं, रामरूप धारण करने पर, मेरी वासना ही शांत हो जाती है, सारी कामतृषा ही समाहित हो
जाती है।’’
विकलांग श्रद्धा का दौर : हरिशंकर परसाई
●तिलचट्टों देखो मैं श्रद्धेय हो गया। तुम घिसते रहो कलम।
●वैसे चरण छूना अश्लील कृत्य की तरह अकेले में ही किया जाता है।
●अपना तो यह नियम है कि गौ, ब्राम्हण, कन्या के चरण जरूर छूते हैं।
●डॉक्टरेट अध्ययन और ज्ञान से नहीं, आचार्य कृपा से मिलती है।
●लोग वयोवृद्ध कमीनेपन के भी चरण छू लेते हैं। मेरा कमीनापन अभी श्रद्धा के लायक नहीं हुआ है।
●पीछे पड़ने वाले तो पतिव्रता को भी छिनाल बना देते हैं।
●श्रद्धेय बनने का मतलब है – ‘नान परसन- ‘अव्यक्ति’ हो जाना।
●अपने श्रद्धालुओं से कहना चाहता हूँ – “यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है। मारो एक लात और क्रांतिकारी बन जाओ।”