पात्र-
- बिसेसर उर्फ़ बिसू (मुख्य पात्र)हीरा (बिसू के पिता)
- बिंदेश्वरी प्रसाद उर्फ़ बिंदा
- रुक्मा (बिंदा की पत्नी)
- दा साहब (मुख्यमंत्री, गृह मंत्रालय का प्रभार भी)
- सदाशिव अत्रे (सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष)
- जोरावर (स्थानीय बाहुबली और दा साहब का सहयोगी)
- सुकुल बाबू (सत्ता प्रतिपक्ष, पूर्व मुख्यमंत्री और सरोह गाँव की विधानसभा सीट के प्रत्याशी)
- लखनसिंह (सरोहा गाँव की सीट से सत्ताधारी पार्टी का प्रत्याशी, दा साहब का विश्वासपात्र)
- लोचनभैया (सत्ताधारी पार्टी के असंतुष्ट विधायकों के मुखिया)
- सक्सेना (पुलिस अधीक्षक)
- दत्ता बाबू (मशाल समाचार पत्र के संपादक)
मुख्य बिंदु
- महाभोज के शिल्प में नाटकीयता के तत्व निहित है।
- पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सरोहा गाँव का अंकन किया है लेखिका ने।
- ग्रामीण हरिजन वर्ग एवं ग़रीब जनता की दयनीय स्थिति का अंकन हुआ है।
- राजनीतिक षड्यंत्र चुनावी दाँवपेंच का अंकन हुआ है।
- भ्रष्ट पुलिस-व्यवस्था का चित्रण हुआ है।
- बिकी हुयी मीडिया का चित्रण।
- इस उपन्यास में राजनीतिक जीवन में व्याप्त ‘दोहरी नीति’,’भ्रष्टाचार’,’अवसरवादिता’,’अमानवीयकरण’,’शोषण’, आदि का वर्णन हुआ है।
- उपन्यास में दिखाया गया है कि कैसे जनतंत्र समाज के शक्तिशाली लोगों के हितों से संचालित है।
- इस उपन्यास की भाषा में एक अद्भुत प्रहरात्मकता और व्यंगधर्मिता दिखाई देती है।
- यह उपन्यास स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राजनीति के चारित्रिक स्खलन के साथ-साथ जनता के गहरे मोहभंग को भी व्यंजित करती है।
- उपन्यास का अंत- संघर्ष एवं विरोध में हुआ है।
- जो भी क्रांतिकारी रहता है उसका मुँह व्यवस्था सदा के लिए बंद कर देता है।
मधुरेश -हिन्दी उपन्यास का विकास में लिखते हैं-
“मन्नू भंडारी का ‘महाभोज’ अंतर्वस्तु के विस्तार का एक विस्मयकारी और अभूतपूर्व उदाहरण है। महिला-लेखक और लेखन की परम्परागत छवि को वह एक झटके से ध्वस्त करता है। भारतीय राजनीति के अमानवीय चरित्र पर इससे तीखी टिप्पणी मुश्किल है। कमलेश्वर के ‘काली आँधी’ के साथ रखकर इस अंतर को आसानी से समझा जा सकता है। भारतीय समाज में, राजनीतिक जीवन में घुसपैठ करती मूल्यविहीनता और तिकड़म को ‘महाभोज’ गहरी सलंग्नता के साथ उद्घाटित करता है। आज राजनीतिक व्यक्ति समाज और साहित्य का सबसे बड़ा खलनायक है। दा-साहब के दोहरे व्यक्तित्व को, उनके अंदर के शैतान और ऊपर के सत-रूप को, मन्नू भण्डारी ने आश्चर्यजनक विश्वसनीयता से साधा है। बिसेसर, बिंदा और हीरा उस दलित वर्ग के प्रतिनिधि पात्र’ हैं जिनके शव पर राजनीति के गिद्ध जीम रहे हैं।”
उपन्यास के मुख्य अंश
- मरे आदमी और सोए आदमी में कितना ही अन्तर होता है।
- विधान सभा में उनके फटे गले से निकली चीख़-पुकार वास्तव में उनके फटे हृदय की अनुगूँज ही थी जिसने सारे सदन में धरती-फाड़ हंगामा मचा दिया।
- सीखना चाहे तो इतनी विशेषताएँ हैं दा साहब में कि सीखनेवाला मज़े में पूरी ज़िंदगी खपा सकता है।
- दा साहब के लिए-साधना की आग में तपकर ही कुंदन-सा निखर आया है उनका व्यक्तित्व।
- दा साहब को जितना देश प्रिय है,उतनी ही देशी पद्धति भी।
- चुनाव में दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ती है।
- आदमी का दुःख जिस दिन पैसे से दूर होने लगेगा-इंसानियत उठ जाएगी दुनिया से।
- क़ानून अनुमान पर नहीं,प्रमाण पर चलता है।
- आवेश राजनीति का दुश्मन है।राजनीति में विवेक चाहिए।
- स्वार्थ को इतनी छूट देना ठीक नहीं कि वह विवेक को ही खा जाए।
- अपनी कही बात ही उनके लिए अंतिम होती है।
- ग़ुलामी आत्मा का क्षय तो करती ही है।
- मेरे लिए राजनीति धर्मनीति से कम नहीं।
- सच बोलते ही गला दबा दिया जाएगा और जहाँ सच का ही गला दबता हो,वहाँ न्याय की उम्मीद की जा सकती है।
- कुर्सी और इंसानियत में बैर है।इंसानियत की खाद पर ही कुर्सी के पाए अछी तरह जमते हैं।
- आस्था से कही बात और आस्था से किया काम दूसरे तक न पहुँचे,यह हो नहि सकता।नहीं पहुँचता तो समझो,तुम्हारी,कहीं तुम्हारी अपनी आस्था में कमी है।
- प्रजातंत्र में अख़बार पर पाबंदी हो,अशोभनीय स्थिति लगती है यह।
- सम्पन्न लोग तो जैसे-तैसे बच ही जाते है-पैसे के ज़ोर से,ताक़त के ज़ोर से।मरता तो ग़रीब ही है न?
- गहरी निष्ठा से उपजी हुई बातें बाहरी समर्थन की मोहताज नहीं होती।
- त्याग करेंगे कन-भर और बदले में चाहेंगे मन-भर।
- मंज़िल तक पहुँचने के लिए हम सड़क बनाते है,पर जब सड़क बन रही होती है,उस समय वही हमारा लक्ष्य होती है -अप्पा साहब का कथन
- जहाँ पल में तोला,पल में माश वाली स्थिति हो,वहाँ ज़्यादा सोच-विचार में पड़ना ही नहीं चाहिए।
- मात्र उम्मीद की डोर से बँधा हुआ आदमी भी बहुत कुछ कर गुज़रता है कभी-कभी।
- हरिजनों को ज़िंदा जला दिया गया और आपकी सरकार और आपकी पुलिस तमाशा देखती रही और महीने-भर से ख़ुद तमाशा कर रही है।
- कुछ नहीं करेगी यहाँ की पुलिस… कभी कुछ नहीं करेगी। करना होता तो पहले ही नहीं करती?…कानून और पुलिस के हाथ तो बहुत लंबे होते हैं! केवल गरीबों को पकड़ने के लिए?-बिंदा का कथन
- इसी क्रांति का सपना देखा था?और इसी टुच्चेपन की सौदेबाज़ी के लिए मंत्रीमंडल गिराने की बात सोच रहे हैं वे? नाम,चेहरे,लेबुल,भले ही अलग हों-पर अलगाव है कहाँ?- सुक़ुल बाबू-दा साहब-राव-चौधरी… -लोचन बाबू का कथन
- इन हरिजनों के बाप-दादे हमारे बाप-दादों के सामने सिर झुकाकर रहते थे।झुके-झुके पीठ कमान की तरह टेढ़ी हो जाती थी।और ये ससुरे सीना तानकर आँख में आँख गाड़कर बात करते हैं।-ज़ोरावर का कथन
- अब बचे हुए सारे वोट अपने पक्ष में करने पड़ेंगे तब बात बनेगी।पर इन नीची जात वालों का कुछ भरोसा नहीं।-सुक़ुल बाबू का कथन
- क़ानून हाथ में लेते ही आदमी बेताज का बादशाह हो जाते है।-दा साहब का कथन
- जनता एक होती है तो बड़े-बड़े राज्य उलट देती है।
- कहाँ रखा है पद-वद! भूल जाइए अब सब। विरोधी दल के नेता इस घटना को ऐसा भुनाएँगे कि हम सब तापते ही रह जाएँगे। यह बिसू की नहीं, समझ लीजिए एक तरह से मेरी हत्या हुई है, मेरी।
- इन ग़रीब लोगों का क्या है;पैसा जेब में पड़ते ही आधा दुःख-दर्द तो दूर हो जाता है इनका-शुकुल बाबू का कथन
- दा साहब के हाथों बिकनेवाला जीव नहीं है वह-बिंदा के लिए
- जो कौड़ी-कौड़ी को महताज हो-उसे जहाँ भी दो पैसे दिखेंगे,उधर लपकेगा तो सही।
- देहात का आदमी जब एक बार शहर की हवा खा लेता है तो फिर बिलकुल लाटसाहब ही समझने लगता है।
- हमलोगों के ज़िंदा रहने पर एक बड़ा-सा प्रश्नचिन्ह लगाकर वह मिस्टर गया-महेश का कथन
- बहुतै मुलायम रही हमार बिसुआ की चमड़ी-बहुतै मुलायम।-हीरा का कथन
- मेरे भीतर सुलगती आग इन आँसुओं से ठंडी हो गयी तो सबकी तरह जनख़ा हो जाऊँगा मैं भी-बिंदा का कथन
- और जो ज़िंदा हैं,वे अब जी नहीं सकते अपने इस देश में।मार दिए जाते हैं,कुत्ते की मौत -बिंदा का कथन
- बेगुनाहों को पकड़ने का भी और गुनहगारों को छोड़ने का भी।यही तो न्याय है आप लोगों का।-बिंदा का कथन
- आदमी जब अपनी सीमा और सामर्थ्य को भूलकर कामना करने लगे तो समझ लो,पतन की दिशा में उसका क़दम बढ़ गया-दा साहब का कथन
- सौदेबाज़ी पर टिके सम्बन्धों में कहीं स्थायित्व हो सकता है भला।
- राजनीति मेरे लिए स्वार्थनीति नहीं है और चाहता हूँ कि मेरे साथ काम करने वाले लोग भी इस बात को समझ ले-दा साहब का कथन
- जब आदमी अपने को ही धोखा देने लगता है तो मार खाता है निश्चय ही -दा साहब का कथन
- यह ज़रूरी नहीं कि भला आदमी योग्य भी हो-दा साहब का कथन
- आज तो परिवर्तन का नाम लेनेवाले की आवाज़ घोंट दी जाती है-उसे काटकर फेंक दिया जाता है।