Skip to content
प्रकाशन वर्ष- 1933
अंक -3
स्त्री पात्र-ध्रुवस्वामिनी, मंदाकिनी, कोमा
पुरुष पात्र- रामगुप्त,चन्द्रगुप्त, शिखरस्वामी, शकराज,खिंगिल,मिहिरदेव और पुरोहित।
इनके अलावा- हिजड़ा,बौना,कुबड़ा,प्रतिहारी,खड्गधारिणी, सामंत कुमार,शक-सामंत आदि।
- मुख्य बिंदु:-
- नाटक का केंद्रीय पात्र-ध्रुवस्वामिनी हीं है।
- प्रसाद जी की यह अंतिम और श्रेष्ठ नाट्य-कृति है।
- इसका कथानक गुप्तकाल से सम्बंधित है।
- नाटक में नारी के अस्तित्व,अधिकार,और पुनर्लग्न की समस्या को प्रसाद ने उठाया है।
- पुरुषसत्तात्मक समाज के शोषण के प्रति नारी का विद्रोह।
- यह नाटक इतिहास की प्राचीनता में वर्तमान काल की समस्या को प्रस्तुत करता है।
- इसकी कथा का स्त्रोत विशाखदत्त प्रणीत ‘देवीचंद्रगुप्तम’ नाटक के अंशों के अन्वेषण है।
- आधुनिक यथार्थवादी नाट्यकला का प्रयोग।
- इस नाटक में नये शिल्प का प्रयोग है-एक अंक में एक ही दृश्य का विधान है।
- नंददुलारे बाजपेयी का कथन- ध्रुवस्वामिनी का कथावस्तु- ऐतिहासिक है,परंतु उसके मूल में समस्या का समाधान प्रमुख तत्व है।किंतु यह समस्या नाटक नहीं है।
ध्रुवस्वामिनी-प्रथम अंक
- मैं जानती हूँ कि इस राजकुल के अन्तःपुर में मेरे लिए न जाने कब से नीरव अपमान संचित रहा, जो मुझे आते ही मिला; किन्तु क्या तुम-जैसी दासियों से भी वही मिलेगा- (ध्रुवस्वामिनी का कथन खड्गधारिणी के प्रति)
- राज-चक्र सबको पीसता है, पिसने दो, हम निःसहायों को और दुर्बलों को पिसने दो!- (ध्रुवस्वामिनी का कथन)
- मनुष्य के हृदय में देवता को हटाकर राक्षस कहाँ से घुस आता है?- (ध्रुवस्वामिनी का कथन)
- जगत की अनुपम सुन्दरी मुझसे स्नेह नहीं करती और मैं हूँ इस देश का राजाधिराज!- (रामगुप्त का कथन)
- जो स्त्री दूसरे के शासन में रहकर और प्रेम किसी अन्य पुरुष से करती है, उसमें एक गम्भीर और व्यापक रस उद्वेलित रहता होगा।- (रामगुप्त का कथन)
- मेघ-संकुल आकाश की तरह जिसका भविष्य घिरा हो, उसकी बुद्धि को तो बिजली के समान चमकना ही चाहिए।- (शिखरस्वामी का कथन)
- भयानक समस्या है। मूर्खों ने स्वार्थ के लिए साम्राज्य के गौरव का सर्वनाश करने का निश्चय कर लिया है। सच है, वीरता जब भागती है, तब उसके पैरों से राजनीतिक छलछन्द की धूल उड़ती है।- (मंदाकिनी का कथन)
- यह कसक अरे आँसू सह जा।
- बनकर विनम्र अभिमान मुझे।- (मंदाकिनी का गायन)
- मैं महादेवी ही हूँ न? – (ध्रुवस्वामिनी का कथन)
- किन्तु मैं भी यह जानना चाहती हूँ कि गुप्त साम्राज्य क्या स्त्री-सम्प्रदान से ही बढ़ा है?- (ध्रुवस्वामिनी का कथन)
- अमात्य, तुम बृहस्पति हो चाहे शुक्र, किन्तु, धूर्त होने से ही क्या मनुष्य भूल नहीं सकता? – (ध्रुवस्वामिनी का कथन)
- मैं केवल यही कहना चाहती हूँ कि पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु-सम्पत्ति समझकर उन पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है। वह मेरे साथ नहीं चल सकता। यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरव नहीं बचा सकते, तो मुझे बेच भी नहीं सकते हो। हाँ, तुम लोगों को आपत्ति से बचाने के लिए मैं स्वयं यहाँ से चली जाऊँगी।- (ध्रुवस्वामिनी का कथन)
- मैं केवल रानी ही नहीं, किन्तु स्त्री भी हूँ। – (ध्रुवस्वामिनी का कथन)
- मेरा स्त्रीत्व क्या इतने का भी अधिकारी नहीं कि अपने को स्वामी समझने वाला पुरुष उसके लिए प्राणों का पण लगा सके?- (ध्रुवस्वामिनी का कथन)
- सोने की कटार पर मुग्ध होकर उसे कोई अपने हृदय में डुबा नहीं सकता।- (रामगुप्त का कथन)
- राज्य और सम्पत्ति रहने पर राजा को – पुरुष को बहुत-सी रानियाँ और स्त्रियाँ मिलती हैं, किन्तु व्यक्ति का मान नष्ट होने पर फिर नहीं मिलता। – (ध्रुवस्वामिनी का कथन)
- निर्लज्ज! मद्यप!! क्लीव!!! ओह, तो मेरा कोई रक्षक नहीं (ठहरकर) नहीं, मैं अपनी रक्षा स्वयं करूँगी। मैं उपहार में देने की वस्तु, शीतलमणि नहीं हूँ। मुझमें रक्त की तरल लालिमा है। मेरा हृदय ऊष्ण है और उसमें आत्मसम्मान की ज्योति है। उसकी रक्षा मैं ही करूँगी। – (ध्रुवस्वामिनी का कथन)
- जीवन विश्व की सम्पत्ति है। प्रमाद से, क्षणिक आवेश से, या दुःख की कठिनाइयों से उसे नष्ट करना ठीक तो नहीं। गुप्त-कुल लक्ष्मी आज यह छिन्नमस्ता का अवतार किसलिए धारण करना चाहती है।-(चन्द्रगुप्त का कथन)
- मेरे हृदय के अन्धकार में प्रथम किरण-सी आकर जिसने अज्ञातभाव से अपना मधुर आलोक ढाल दिया था, उसको भी मैंने केवल इसीलिए भूलने का प्रयत्न किया कि…(चन्द्रगुप्त का कथन)
- मैं तुमको न जाने दूँगी। मेरे क्षुद्र, दुर्बल नारी-जीवन का सम्मान बचाने के लिए इतने बड़े बलिदान की आवश्यकता नहीं।(ध्रुवस्वामिनी का कथन चन्द्रगुप्त के प्रति)
- कितना अनुभूतिपूर्ण था वह एक क्षण का आलिंगन। कितने सन्तोष से भरा था! नियति ने अज्ञात भाव से मानो लू से तपी हुई वसुधा को क्षितिज के निर्जन में सायंकालीन शीतल आकाश से मिला दिया हो। – (ध्रुवस्वामिनी का कथन)
- मृत्यु के गह्वर में प्रवेश करने के समय मैं भी तुम्हारी ज्योति बनकर बुझ जाने की कामना रखती हूँ।-(ध्रुवस्वामिनी का कथन)
- पैरों के नीचे जलधर हों, बिजली से उनका खेल चले।
- संकीर्ण कगारों के नीचे, शत-शत झरने बेमेल चलें ॥- मन्दाकिनी का गायन)
द्वितीय अंक
गीत-
- यौवन! तेरी चंचल छाया।
इसमें बैठे घूँट भर पी लूँ जो रस तू है लाया।
- प्रश्न स्वयं किसी के सामने नहीं आते। मैं तो समझती हूँ, मनुष्य उन्हें जीवन के लिए उपयोगी समझता है।-(कोमा का कथन)
- सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता के नाम हैं। मैं तो पुरुषार्थ को ही सबका नियामक समझता हूँ!-(शकराज का कथन)
- संसार के नियम के अनुसार आप अपने से महान् के सम्मुख थोड़ा-सा विनीत बनकर उस उपद्रव से अलग रह सकते थे।-(कोमा का कथन)
- उनकी पराजयों का यह प्रतिशोध है। हम लोग गुप्तों की दृष्टि में जंगली, बर्बर और असभ्य हैं तो फिर मेरी प्रतिहिंसा ही बर्बरता के भी अनुकूल होगी।-(शकराज का कथन)
- अस्ताचल पर युवती सन्ध्या की खुली अलक घुँघराली है
लो, मानिक मदिरा की धारा अब बहने लगी निराली है।- (नर्तकियों का गायन)
- संसार में बहुत-सी बातें बिना अच्छी हुए भी अच्छी लगती हैं, और बहुत-सी अच्छी बातें बुरी मालूम पड़ती हैं।-(कोमा का कथन)
- किन्तु राजनीति का प्रतिशोध क्या एक नारी को कुचले बिना नहीं हो सकता?-(कोमा का कथन)
- स्त्री का सम्मान नष्ट करके तुम जो भयानक अपराध करोगे, उसका फल क्या अच्छा होगा?-(मिहिरदेव का कथन)
- स्त्रियों का स्नेह-विश्वास भंग कर देना, कोमल तन्तु को तोड़ने से भी सहज है।-(मिहिरदेव का कथन)
- राजनीति ही मनुष्यों के लिए सब कुछ नहीं है। राजनीति के पीछे नीति से भी हाथ न धो बैठो, जिसका विश्व मानव के साथ व्यापक सम्बन्ध है।-(मिहिरदेव का कथन)
- बेटी! हृदय को सँभाल। कष्ट सहन करने के लिए प्रस्तुत हो जा। प्रतारणा में बड़ा मोह होता है।-(मिहिरदेव का कथन)
प्रेम का नाम न लो। वह एक पीड़ा थी जो छूट गई।-(कोमा का कथन)
तृतीय अंक
- संसार मिथ्या है या नहीं, यह तो मैं नहीं जानती, परन्तु आप, आपका कर्मकाण्ड और आपके शास्त्र क्या सत्य हैं, जो सदैव रक्षणीया स्त्री की यह दुर्दशा हो रही है?-(ध्रुवस्वामिनी का कथन)
- स्त्री और पुरुष का परस्पर विश्वासपूर्ण अधिकार रक्षा और सहयोग ही तो विवाह कहा जाता है। यदि ऐसा न हो तो धर्म और विवाह खेल है।-(पुरोहित का कथन)
- स्त्रियों के इस बलिदान का भी कोई मूल्य नहीं। कितनी असहाय दशा है। अपने निर्बल और अवलम्बन खोजने वाले हाथों से यह पुरुषों के चरणों को पकड़ती हैं और वह सदैव ही इनको तिरस्कार, घृणा और दुर्दशा की भिक्षा से उपकृत करता है। तब भी यह बावली मानती है।-(मंदाकिनी का कथन)
- विधान की स्याही का एक बिन्दु गिरकर भाग्य-लिपि पर कालिमा चढ़ा देता है। मैं आज यह स्वीकार करने सें भी संकुचित हो रहा हूँ कि ध्रुवस्वामिनी मेरी है।-(चन्द्रगुप्त का कथन)
- भगवान् ने स्त्रियों को उत्पन्न करके ही अधिकारों से वंचित नहीं किया है। किन्तु तुम लोगों की दस्युवृत्ति ने उन्हें लूटा है।-(मंदाकिनी का कथन)