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सत्यम कुमार झा की कविताएं

सत्यम कुमार झा की कविताएं

भोर का शहर

भोर का शहर,

आधी नींद में उठता है,

आंखें मींचते,

जम्हाई लेता,

मानो रात का एक हिस्सा चुपके से मिल गया हो सुबह की हवा में,

रौशनी बिखरने लगती है चारो तरफ,

और लोग दौड़ने लगते है अस्त व्यस्त,

जैसे किसी ने मुनादी करवा दी हो,

कि काम पर जाना अनिवार्य है ।

 दोपहर का शहर

दोपहर बुद्ध सा लगता है,

जैसे ठंढी अंगीठी पर चढ़ा रखी हो किसी ने चाय की केतली,

जिसकी तपिश शाम को मालूम हो ।

दूधिया रौशनी में चूता है शहर का खून

उतर आता है लोगो के माथे पर नमकीन पानी,

दोपहर का शहर 

समय से पहले बूढ़ा लगने लगता है ।

 शाम का शहर

शाम ज़्यादा दिखती है इस वक़्त,

गली, मोहल्ले, चौक-चौराहे

और चाय की दुकानों पर

रेत घड़ी सबसे तेज़ अभी ही चलती है,

सब उल्टे पांव लौटने लगते है घर को

आपाधापी, नूरा कुश्ती, चिंताएँ घर तक साथ आने लगती है,

रेत घड़ी सबसे चालक घड़ी होती है,

सबसे बेहतरीन वक़्त और मुसीबतों को,

जल्दी भगा ले जाती है अपने साथ ।

रात का शहर

लैंपपोस्ट को चौकीदार बना दिया जाता है,

कि हर पथिक पर नज़र रखे,

शहर के घरों में लोग गुप्प अंधेरे के आदी हो गए है,

रात का समय सूरज निकलने तक तय माना जाता है,

लोग अपने में सिमटे होने के अभ्यस्त हो गए है,

सड़क किनारे पेड़ सरसराकर दिशा बताने का काम करता है,

फिर भी कई लोग भटक जाते है रात में,

आखिरकार शहर में अब पेड़ ही कितने बचे हैं ।

गांव की इसाबेल

गांव की शाम को सर पर ओढ़े निकलती है इसाबेल

इसाबेल जिसने सुबह को पहन लिया है घूंघट की तरह,

सर पर उठाये रखती है धूप छांव और तमाम

जिम्मेदारी खर पतवार की तरह ।

उसे नहीं मालूम कि देश की राजनीति किस दिशा में जा चुकी है

न ही, ये पता है कि राष्ट्र किसको कहते है,

लेकिन भूख उसे बखूबी पता है,

जिसे देर तक धीमे आंच में पकाती रहती है ।

इसालेब को पता नहीं कि ये नाम क्योंकर दिया गया

या क्यों दिया गया ,

लेकिन उसे मौसम और आने वाले प्रलय के बारे में बखूबी पता है ।

इसाबेल सरपट दौड़ती हुई वो विकास है जो भारत के आकंड़े में नहीं आती

पथरीली आंखे और हाथों की बेरुखी से सराहती है इंतजार 

जिसने बांध दिया है उसे अपने गांव के चौहद्दी तक

फिर भी करती है अपने पति का इंतजार 

जो गौने के सातवें रोज निकला था मजूरी को

फिर लौट के भी न आया 

बावजूद इसके इसालेब के तीन बच्चे है और अबकी फागुन में एक और बच्चा जनेगी

इसालेब से किसी ने नहीं पूछा उसके बच्चे के पिता का नाम

बहुत कम बोलती हुई इसाबेल बुदबुदाती है मन ही मन की पूस में उसे काम चाहिए

ताकि फागुन में सात रोज मजूरी से छुट्टी ले सके

इसाबेल असल भारत है जिसे दर्ज नहीं किया गया अभी तक

इसाबेल एक ही बात कहती है उसे अपने बच्चे का भविष्य देखना है।

ताकि शहर में रहने लायक जगह बची रह जाए !

शहर के चौराहे पर लाल निशान कई बार लिखा गया

और समाज की किताब में

इसे खतरे की घँटी के नाम से जाना गया। 

एक पटरी जो दूर बहुत दूर तक जाती थी

जहां आजादी लिखनी चाहिए थी वहां स्टेशन लिख दिया गया ।

फिर भी पटरियों ने कभी रेलगाड़ियों का साथ नहीं छोड़ा

हां इंसान रंग छोड़ने के आदी जरूर हो गए

अब सांझ ढलते ही कोई पहरेदार नहीं पीटता डंडा न ही सिटी बजाता है

उसे खूब मालूम है चोर अब हर घर के अंदर ही है ।

दूर से आती मद्धिम रौशनी लिखती है किलकारियां

उन बच्चों के लिए जो लैंपपोस्ट के नीचे खेलते है

और थकते हुए फुटपाथ पर सो जाया करते है

शहर अब हादसों का जुमला बन गया है

जो आये दिन खबर में इश्तिहार सा ऊपरी पृष्ठ पर रोज पाया जाता है

मैंने इस बदलते विन्यास पर क्षोभ प्रकट किया और

चख कर दारू पी और सो गया ।

ताकि सुबह सूरज की अंगड़ाई में शहर पर झाड़ू से साफ होते गंदगी के बाद का शहर मेरे हिस्से आए

जीवन का हिस्सा कुछ रह गया उन प्लेटफार्म सा

जहां कोई एक्सप्रेस रेलगाड़ी गुजरते हुए सिटी नहीं बजाती

मैं एक शहर हूँ रात लिखता हूँ और बेहद डर जाता हूँ

मुझे पता है आज भी कुछ हादसे इसी क्षण यही कहीं मेरे देह पर उकेर दिए जाएंगे

एक सेना है जो नदी की भांति हर सुबह अपना रास्ता खून भरी जूतों के साथ तय करती है

 और कोई मोची उसे चमका कर उन्हें शरीफ साबित करेगा

मैं शहर हूँ- रात में भी रौशनी की तलाश में लैंपपोस्ट तक आकर रुक जाता हूँ

ताकि शहर में रहने लायक जगह बची रह जाए !

देह की भाषा

सबसे जरूरी चीज सारी भाषाओं की ज्ञाता होती है 

जैसे चल रहे पथिक के चप्पल की भाषा

चपर चपर , चट चट

दौड़ रहा हो कोई अपने से

भर दुपहरी में चल रहे मवेशी के पानी पीने की भाषा

चभर चभर 

जीभ लपलपाते किस भाषा में संवाद करता है वह पानी से 

बरसात की भाषा 

टिप टिप चभ चभ 

जैसे कोई विरह के बाद मिल रहा हो किसी से ।

पंछियों की भाषा 

ची ची 

जैसे दूर गए किसी प्रेमी को हांक लगा रही हो

आदमी की भाषा 

जैसे कोई हिंसा के शब्द लिख रहा हो देह पर

भाषा सबकी होती है 

जैसे टिड्डियों की भाषा 

रात को एकांत से तोड़ती हो जैसे

पेड़ को भाषा में हनहनाना लिखा है

जैसे बिछ रहे हो एक दूसरे पर लिपट लिपट कर

भाषा उतनी गैरजरूरी नहीं 

लेकिन बोलना उतना ही गैरजरूरी है

देह की भाषा से इतर कौन सी सुंदर भाषा का ईजाद हो पाया है आजतक

जैसे आंख की भाषा

जो अनवरत लिखता हो स्याह अक्षर से भी 

मजबूत भाषा ।

माजुली

माजुली भारत की सबसे बड़ी नदी द्वीप , 

न जाने कितनी बड़ी,

अरुणाचल की सुबह सी बिखरती द्वीप

तंत्र की सबसे बड़ी जगह

इतनी की असाम का जादू 

पहचान बन गयी

फिर भी बच न पाई माजुली

शहर के बढ़ते कदम माजुली को बांध दिया

जोरहाट से कितनी दूरी 

कितने आदमी आते है माजुली नदी पार करके

एकमात्र साधन बनता है ब्रहपुत्र

ब्रहपुत्र अपने में कितना पानी रखती है संजो कर 

जितना कि मनुष्य में संवेदनाएं

संवेदनाएं कितनी बची है मनुष्य में

जितनी हर साल टूट जाती है माजुली

इतना कटाव की किसी को पता भी न चला

कोई खबर भी न बनी

और एक सरकार है जो कहती है काम शोध का काम जारी है

माजुली सांझ ढले किस उम्मीद से देखती होगी उत्तर की ओर

जहां से अब कोई नहीं आता

एक पूरा भरा हिस्सा डूब जाता है गांव का ब्रहपुत्र में

माजुली का

बिना ये कहे कि अब वो नहीं है

माजुली खत्म होती जा रही है

समय दर समय 

उतना ही जितने मनुष्य

में मनुष्य की दूरी

एक दिन आएगा

माजुली खत्म हो जाएगी लोग खत्म हो जाएंगे 

ब्रहपुत्र भी नहीं बचेगा

आखिर उसे कोई बचा न पायेगा 

न असाम का जादू न सरकारी शोध

माजुली के गांव अतीत का हिस्सा बनेगा

तारीखों में तय किया जाएगा

किताबों में दर्ज होगा माजुली

नहीं रह पाएगी 

वहां के लोग 

लोगों की कहानी 

लोगों के किस्से

डूबने का चीत्कार

वहाँ के पंछी 

पेड़ पौधे

आखिर तमाम कोशिशों के बाद

हम बचा ही क्या पाएंगे 

माजुली की कहानी के सिवा ।