मेरा परिवार (महादेवी वर्मा) – प्रकाशन वर्ष- 2008
उच्छवास – इलाचंद्र जोशी ने लिखा है-
“जल्दी ही ‘मीरा और महादेवी’ यह एक साहित्यिक नारा बन गया, हालांकि मीरा न तो (शुद्ध साहित्यिक अर्थ में) कोई कवयित्री थी न कला संबंधी विविध चमत्कारों को अपनी प्रतिभा में समेटे रहने वाली कोई जादूगरनी ही । वह तो विशुद्ध भक्ति रस में डूबी हुई, अपूर्व आध्यात्मिक क्षमता वाली एक महा-तापसी थी ।”
“किसी यथार्थ और महान् प्रतिभा के बीज-कण जब अपनी स्वाभाविक विकास यात्रा के विस्तृत क्षेत्र में अपने विराट रूप के वास्तविक प्रदर्शन के लिए तुल जाते हैं, तब वह कला मात्र की सीमाओं और निरन्तर वर्द्धमान आयामों के साथ खुल कर खेलने लगते हैं और फलस्वरूप अपने चारों ओर ऐसी चकाचौंध लगाने वाला प्रकाश-पुंज बिखेर देते हैं कि किस दिशा से उसकी अवधारणा की जाय, यह बात गतानुगतिक समीक्षकों की चुँधियाई आँखें तनिक भी निश्चित नहीं कर पातीऔर तब उस तीव्र प्रकाश पुंज के मूल उत्स को ही गाली देने या उसकी तीव्र निन्दा करने का पर्व सामूहिक रूप से आरम्भ हो जाता है ।”
“महादेवी जी की काव्य-प्रतिभा पर जो-जो आरोप विभिन्न दिशाओं में लगाये जाने लगे, उनमें एक यह भी था कि कविता का भाव-लोक तो रबर की तरह होता है, उसे जहाँ से भी, जिस किसी भी दिशा की ओर खींचा जाय वह आसानी से उसी ओर खींचा जा सकता है।”
” ‘गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति ।’ ‘किसी कवि की काव्य-प्रतिभा की वास्तविकता परख उसके गद्यात्मक कला-कौशल से होती है, क्योंकि गद्य ही काव्य-प्रतिभा की सच्ची कसौटी है।'”
“रवीन्द्रनाथ ने विश्व विख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टाइन के साथ अपने एक दार्शनिक वार्तालाप के दौरान कहा था कि मानवीय संवेदना विश्व-प्रकृति के सम्पूर्ण दायरे के कण-कण को छाये हुए है । यह बात उन्होंने आइन्स्टाइन के उस प्रश्न के उत्तर में कही थी जिसमें महान् वैज्ञानिक ने पूछा था कि ‘क्या सृष्टि-चक्र का कोई तत्त्व मानवीय व्यक्तित्व को संवेदनशीलता के दायरे से एक-दम मुक्त, अछूता और निरपेक्ष नहीं है?”
“कवयित्री के इतने वर्षों के शिल्प- विकास के चरम रूप का पूर्ण निखार स्फटिक की तरह तरल – उज्ज्वल धाराओं में निर्झर की तरह श्वेत पत्थरों पर टूट-टूटकर बिखरता हुआ, आनन्दमयी क्रीड़ा द्वारा कुलकुलाता हुआ फेनिल हास बिखेर रहा है । यह न गद्य है न पद्य, न काव्य- स्फुरण है न मात्र रेखा-चित्रण | यह एक बिल्कुल ही नयी विधा है, जिसका उपयुक्त नामकरण होने में अभी समय लगेगा ।”
“ये अमर चित्र समग्र विश्व-साहित्य के इतिहास – क़ाल में अपनी विशिष्टता बराबर बनाए रखेंगे, इस विश्वास के साथ अपने उच्छवास का संवरण कर रहा हूँ।”
“स्मृति यात्रा में पशु-पक्षी ही मेरे प्रथम संगी रहे हैं, किन्तु इसे दुर्योग ही कहा जायगा कि मनुष्य ने उनसे वह प्राथमिकता अनायास छीन ली।”
“अनुभूति की तीव्रता ही हमारे मनोजगत् में कोई संस्कार छोड़ जाती है और यह तीव्रता अनुभूत विषय के महत्त्वपूर्ण या तुच्छ होने पर निर्भर नहीं रहती । बालक के लिए खिलौना टूटने को दुःखद अनुभूति भी इतनी तीव्र और सत्य हो सकती है, जितनी वयस्क की आत्मीय जन के विछोह की न हो।”
बहिन श्यामा का जिक्र हुआ है।
अनुक्रम
1. नीलकंठ – मोर
2. गिल्लु- गिलहरी
3. सोना- हिरणी
4. दुर्मुख- ख़रगोश
5. गौरा- गाय
6. नीलू- कुत्ता
7. निक्की, रोज़ी और रानी (निक्की- नेवला, रोज़ी- कुत्ती, रानी- घोड़ी)
“हमारे देश में अस्पताल, साधारण जन को अंतिम यात्रा में संतोष देने के लिए ही तो है।”
“नीलाभ ग्रीवा के कारण मोर का नाम रखा गया नीलकंठ और उसकी छाया के समान रहने के कारण मोरनी का नाम-करण हुआ राधा।”
“मयूर कलाप्रिय वीर पक्षी है, हिंसक मात्र नहीं।इसी से उसे बाज, चील आदि की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, जिनका जीवन ही क्रूरकर्म है।”
कुब्जा – नयी मोरनी
कजली – अलसेशियन कुत्ती
“सोनजुही में आज एक पीली कली लगी है। इसे देखकर अनायास ही उस छोटे जीव का स्मरण हो आया, जो इस लता की सघन हरीतिमा में छिपकर बैठता था और फिर मेरे निकट पहुँचते ही कंधे पर कूदकर उसे चौंका देता था। तब मुझे कली की खोज रहती थी, पर आज उस लघुप्राण की खोज है।”
“गिलहरियों के जीवन की अवधि दो वर्ष से अधिक नहीं होती।”
“सोनजुही लता के नीचे गिल्लू को समाधि दी गयी है इसलिए भी कि उसे वह लता सबसे अधिक प्रिय थी इसलिए भी कि उस लघुगात का, किसी वासन्ती दिन, जुही के पीताभ में खिल जाने का विश्वास, मुझे संतोष देता है।”
सोना की आज अचानक स्मृति होने का कारण है। मेरे परिचित स्वर्गीय डाक्टर धीरेन्द्र नाथ बसु की पौत्री सुस्मिता ने लिखा है :
-एक हिरन मिला था। बीते कुछ महीनों में हम उससे बहुत स्नेह करने लगे हैं। परन्तु अब मैं अनुभव करती हूँ कि सघन जंगल से संबद्ध रहने के कारण तथा अब बड़े हो जाने के कारण उसे घूमने के लिए अधिक विस्तृत स्थान चाहिए ।
परन्तु उस बेचारे हरिण – शावक की कथा तो मिट्टी की ऐसी व्यथा कथा है, जिसे मनुष्य की निष्ठुरता गढ़ती है । वह न किसी दुर्लभ खान के अमूल्य हीरे की कथा है और न अथाह समुद्र के महार्घ मोती की ।
“निर्जीव वस्तुओं से मनुष्य अपने शरीर का प्रसाधन मात्र करता है, अतः उनकी स्थिति में परिवर्तन के अतिरिक्त कुछ कथनीय नहीं रहता । परन्तु सजीव से उसे शरीर या अहंकार का जैसा पोषण अभीष्ट है, उससे जीवन मृत्यु का संघर्ष है, जो सारी जीवन कथा का तत्त्व है ।”
“जब मृत्यु इतनी अपवित्र और असुन्दर है, तब उसे बाँटते घूमना क्यों अपवित्र और असुन्दर कार्य नहीं है, यह मैं समझ नहीं पाती ।”
“सुनहले रंग के कारण सब उसे सोना कहने लगे।”
“कविगुरु कालिदास ने अपने नाटक में मृगी- मृग शावक आदि को इतना महत्त्व क्यों दिया है, यह हिरन पालने के उपरान्त ही ज्ञात होता है ।”
“पालने पर वह पशु न रहकर ऐसा स्नेही संगी बन जाता है, जो मनुष्य के एकान्त शून्य को तो भर देता है, परन्तु खीझ उत्पन्न करने वाली जिज्ञासा से उसे बोझिल नहीं बनाता । यदि मनुष्य दूसरे मनुष्य से केवल नेत्रों से बात कर सकता, तो बहुत से विवाद समाप्त हो जाते, परन्तु प्रकृति को यह अभीष्ट नहीं रहा होगा ।”
“साहित्य ही नहीं, लोकगीतों की मर्मस्पशिता में मृगों का विशेष योगदान रहता है ।”
“पशु-मनुष्य के निश्छल स्नेह से परिचित रहते हैं, उसकी ऊँची-नीची सामाजिक स्थितियों से नहीं । यह सत्य मुझे सोना से अनायास प्राप्त हो गया ।”
“मेरी बिल्ली गोधूली, कुत्ते हेमन्त – वसन्त, कुत्ती फ्लोरा सब पहले इस नये अतिथि को देखकर रुष्ट हुए, परन्तु सोना ने थोड़े ही दिनों में सबसे सख्य स्थापित कर लिया।”
“यथार्थ कभी-कभी कल्पना की सीमा नाप लेता है।”
“दुर्मुख से तो मैं स्वयं भी रुष्ट हूँ। यह मर्यादा पुरुषोत्तम राम कस गुप्तचर था और रजक द्वारा सीता सम्बन्धी अपवाद की बात राम से
कहकर उसने सीता-निर्वासन की भूमिका घटित की थी।”
“वस्तुतः ख़रगोश बहुत निरीह जीव है। दांत होने पर भी वह किसी को काटता नहीं, पंजे होने पर भी वह किसी को नोंचता-खरोंचता नहीं।”
“अंत में यह सोचकर कि दुर्मुख के क्रोधी स्वभाव के कारण सम्भवतः उसका स्वजातिशून्य अकेलापन है, मैं नखासकोने में बड़े मियाँ से एक शशक-वधू ख़रीद लाई। वह हिम-खंड जैसी चमकीली, शुभ्र और लाल विद्रुम जैसी सुंदर आँखों वाली थी, इसी से उसे हम ‘हिमानी’ कहने लगे।”
“गौरा मेरे बहिन के घर पली हुई गाय की वयसंधि तक पहुँची हुई बछिया थी।”
“महात्मा गांधी ने ‘गाय करुणा की कविता है’, क्यों कहा, यह उसकी आँखें देख कर ही समझ में आ सकता है।”
“बाण की तीव्र गति क्षण भर के लिए दृष्टि में चकाचौंध उत्पन्न कर सकती है, परंतु मंद समीर से फूल का अपने वृत्त पर हौले-हौले हिलना दृष्टि का उत्सव है।”
“नौकरी में नागरिक तो दुहना जानते ही नहीं थे और जो गाँव से आए थे, वे अनभ्यास के कारण यह कार्य इतना भूल चुके थे कि घंटों लगा देते थे।”
“गाय को किसी ने सुई खिला दी थी।”
निरुपाय मृत्यु की प्रतीक्षा का मर्म वही जानता है, जिसे किसी असाध्य और मरणसन्न रोगी के पास बैठना पड़ता है।”
गौरा की बच्ची- लालमणि
“नीलू की कथा उसकी माँ की कथा से इस प्रकार जुड़ी है कि एक के बिना दूसरी अपूर्ण रह जाती है।”
उसकी अल्सेशियन माँ उत्तरायण में लूसी के नाम से पुकारी जाती थी।
उसका बाप भूटिए था।
चौदह वर्ष तक जीवित रहा नीलू।
“कुत्तों में वह केवल कजली के सामीप्य से ही प्रसन्न रहता था, परन्तु कजली और बादल एक क्षण के लिए भी एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकते थे । परिणामतः नीलू बेचारा एकाकी ही रहा । जीवन के समान उसकी मृत्यु भी दैन्य से रहित थी ‘कुत्ते की मौत मरना’ कहावत है, परन्तु यदि नीलू के समान शांत निर्लिप्त भाव से कोई मृत्यु का सामना कर सके, तो ऐसी मृत्यु मनुष्य को भी काम्य होगी।”
“बाल्यकाल की स्मृतियों में अनुभूति की वैसी ही स्थिति रहती है, जैसी भीगे वस्त्र में जल की। वह प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता किन्तु वस्त्र के शीतल स्पर्श में उसकी उपस्थिति व्यक्त होती रहती है।”
“वस्तुतः मेरे पशु- प्रेम का आरम्भ रोजी के साहचर्य से माना जा सकता है।”
“पालने की दृष्टि से नेवला बहुत स्नेही और अनुशासित जीव है।”