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नाटक के विभिन्न तत्व

नाटक के विभिन्न तत्व

नाटक के विभिन्न तत्व

भारतीय काव्यशास्त्र में नाटक के तीन तत्त्व माने गए हैं –

1. वस्तु (कथानक)
2. नेता अर्थात पात्र (चरित्र-चित्रण )
3. रस

पाश्चात्य काव्यशास्त्र में नाटक के छह तत्त्व माने गए हैं –

1. वस्तु
2. पात्र (चरित्र-चित्रण )
3. कथोपकथन
4. देशकाल
5. उद्देश्य
6. शैली

[वस्तु (कथानक) के भेद]

भारतीय आचार्यों ने नाटक को अधिकारी (नेता), अभिनय, नाट्यप्रयोग (संवाद) तथा लोकवृत्त के भेद से अनेक वर्गों में वर्गीकृत किया है।

(क) फल-प्राप्ति की दृष्टि से दो भेद किए हैं-

आधिकारिक कथा : नाटक के प्रधान फल का स्वामित्व ‘अधिकार’ कहलाता है और उसका भोक्ता नायक अथवा अधिकारी होता है.
प्रासंगिक कथा : प्रधान वस्तु की साधक एवं नाटक में प्रसंगतः आई हुई कथा प्रासंगिक कहलाती है.

(ख) अभिनय की दृष्टि से कथाएँ दो प्रकार की होती हैं –

दृश्य : कथावस्तु का जो अंश रंगमंच पर अभिनीत होता है, वह दृश्य कहलाता है।
सूच्य : नाटक के अनावश्यक विस्तार के भय से अथवा साधनों की दुर्बलता से जिन दृश्यों को रंगमंच पर दिखाया नहीं जा सकता उनकी सूचना-भर दे दी जाती है, वह कथा का सूच्य अंश कहलाता है । सूच्य वस्तु की सूचना देने वाले को ‘अर्थोपक्षेपक’ कहते हैं।


सूच्य पाँच प्रकार के होते हैं –

1. विषकम्भक : बीती या भावी घटनाओं की सूचना देने वाला विषकम्भक कहलाता है।
2. प्रवेशक: इसके अंतर्गत भी सूचना विषकम्भक की भाँति दी जाती है, किंतु इसके सूचक पात्र अधम श्रेणी के होते हैं ।
3. चूलिका : पर्दे के पीछे से दी जाने वाली सूचना को ‘चूलिका’ कहा जाता है ।
4. अंकास्य : यदि किसी ऐसी बात की सूचना दी जाए जिसमें अगले अंक के प्रारंभ होने का संकेत हो वह ‘अंकास्य’ कहलाती है ।
5. अंकावतार : जहाँ प्रथम अंक की वस्तु का विच्छेद किए बिना दूसरे अंक की वस्तु आरंभ हो, वहाँ ‘अंकावतार’ होता है ।

(ग) नाट्य-प्रयोग (संवाद) के आधार पर कथा के तीन भेद हैं –

सर्वश्राव्य : वह कथांश जो सबके अर्थात दर्शकों एवं अभिनेताओं के सुनने योग्य होता है।
अश्राव्य : वह कथांश जिसे कोई पात्र आप ही आप इस ढंग से कहता है जिसे कोई दूसरा पात्र न सुने उसे अश्राव्य या ‘स्वगत’ कहते हैं ।
नियतश्राव्य : नियतश्राव्य वह कथानक है जिसे रंगमंच के कुछ चुने हुए पात्र ही सुनें, सब नहीं ।

(घ) लोकवृत्त की दृष्टि से कथानक के तीन प्रकार हैं:

प्रख्यात : इतिहास, पुराण आदि से संबंधित या लोकप्रसिद्ध घटना से ली गई कथा प्रख्यात कहलाती है ।
उत्पाद्य : कवि कल्पना-प्रसूत कथा उत्पाद्य कहलाती है ।
मिश्र : जिस कथा में इतिहास तथा पुराण का आधार तो लिया जाए, किंतु रूपककार उसे अपनी उर्वर कल्पना के बल पर यथाभीष्ट रूप देता है, उसे ‘मिश्र’ कहते हैं ।

कथा-विन्यास

कथा-विन्यास के तीन आधार माने जाते हैं
(क) कार्यावस्था
(ख) अर्थप्रकृति
(ग) संधि

(क) कार्यावस्था : कार्य की सिद्धि के लिए नायक की मानसिक दशा को ध्यान में रखते हुए

[समस्त कथानक के विकास को पाँच अवस्थाओं में बाँटा गया है।]

1. प्रारंभ : कथानक का आरंभिक भाग, जिसमें नायक की इच्छा या प्रमुख उद्देश्य का पता चलता है
2. प्रयत्न : इसमें नायक के उद्देश्य में बाधक विघ्नों एवं उनके समाहार के निमित्त किए गए प्रयत्नों का चित्रण होता है ।
3. प्रत्याशा : इस अवस्था में नायक का उत्कर्ष होने लगता है। उसके मार्ग की कठिनाइयाँ दूर होने लगती हैं और उसे फल प्राप्ति की आशा होने लगती हैं ।
4. नियताप्ति : यह वह अवस्था है जबकि रुकावटों के दूर होने से नायक को फल प्राप्ति का निश्चय हो जाता है ।
5. फलागम : इसमें नायक को फल की प्राप्ति हो जाती है ।

(ख) अर्थप्रकृति : नाटक में फल रूप प्रयोजन की सिद्धि के लिए मिलकर व्यापार करने वाली अनेक अवांतर घटनाएँ ‘अर्थप्रकृतियाँ’ कहलाती हैं।

अर्थप्रकृति पाँच प्रकार के हैं –
1. बीज – फल के प्रथम हेतु’ को ‘बीज’ कहते हैं ।
2. बिंदु – अवांतर कथा के विच्छिन्न होने पर जो घटना उसे प्रधान कथा के साथ जोड़ने वाली होती है, उसे ‘बिंदु’ कहते हैं ।
3. पताका – मूल कथानक को फलोन्मुख करने में योग देने वाली बड़ी प्रासंगिक कथाएँ जो अंत तक चलती रहती हैं, ‘पताका’ कहलाती हैं ।
4. प्रकरी – ऐसी छोटी-छोटी कथाएँ जो अवसर विशेष पर आकर और मुख्य कथा की सहायता करके समाप्त हो जाती हैं ‘प्रकरी’ कहलाती हैं।
5. कार्य – वह साध्य जिसकी सिद्धि के लिए नाटक में सारी सामग्री एकत्र की जाती है, ‘कार्य’ कहलाता है ।

(ग) संधि : एक प्रयोजन से संबंधित कथावस्तु को दूसरे प्रयोजन से संबंधित कथावस्तु के अंश से संबद्ध करने की कला संधि कहलाती है।

संधि पाँच प्रकार के हैं –

1. मुख: बीज तथा आरंभ को मिलाने वाली संधि मुख-संधि है । यह नाटक का वह स्थल है जहाँ विविध कथाओं, उपकथाओं, रसों और वस्तुओं की उद्भावना होती है ।
2. प्रतिमुख बिंदु तथा यत्न को मिलाने वाली संधि प्रतिमुख कहलाती है।
3. गर्भ : गर्भ-संधि नाटक का वह अंश है, जहाँ कुछ प्रकाशित बीज का बार-बार अन्वेषण होता है ।
4. विमर्श या अवमर्श: इसमें बीज के अधिक विस्तार होने से कथानक में फलोन्मुखता आती है।
5. निर्वहण : जहाँ कार्य तथा फलागम मिलते हैं ।

रूपक के भेद

रूपक के दस भेद माने गए हैं –

1. नाटक – इसका कथानक पंचसंधियुक्त होता है, तथा पौराणिक या ऐतिहासिक (आजकल सामाजिक भी) होता है । इसमें पाँच से दस तक अंक होते हैं ।

2. प्रकरण : इसकी कला लौकिक एवं कवि-कल्पित होती है ।

3. भाण – इसमें एक अंक होता है, कथा धूर्तों के चरित्र से युक्त होती है । शृंगार रस की प्रधानता होती है ।

4. प्रहसन – इसमें एक अंक में कल्पित कथावस्तु का प्रतिपादन किया जाता है । हास्य रस की प्रधानता होती है ।

5. डिम – इसमें चार अंक होते हैं । कथा माया, इंद्रजाल आदि से संबंधित होती है। रौद्र रस का परिपाक होता है ।

6. व्यायोग – इसमें एक अंक में ही इतिहास – प्रसिद्ध कथावस्तु का निर्वाह किया जाता है।

7. समवकार – इसमें देव-दैत्य संबंधी पौराणिक कथानक का तीन अंकों में प्रतिपादन किया जाता है।

8. बोथी – इसमें एक अंक होता है । नायक शृंगार – प्रिय होता है, और शृंगार रस की प्रधानता होती है।

9. अंक – एक ही अंक में खेल दिखलाना । नायक गुणी और आख्यान प्रसिद्ध हो।

10. ईहामृग : इसमें चार अंक होते हैं। इसमें कथावस्तु मिश्रित (कुछ ऐतिहासिक और कुछ कल्पित) होती है।

भारतेंदु ने नाट्य- भेद का विवेचन किया है। उन्होंने रंगमंच पर प्रस्तुत खेल के तीन मुख्य भेद माने हैं-


नाटक शब्द की अर्थग्राहिता यदि रंगस्थ खेल में ही की जाए तो हम इसके तीन भेद करेंगे-

काव्य मिश्र 

शुद्ध कौतुक और

भ्रष्ट।