इस गाँव में केवल 2 घर हैं। चारों तरफ घना जंगल है जब हम घना जंगल कहते हैं, तो उसका अर्थ rainforest जैसा जंगल होता है… इस जंगल में काला भालू, भूरा भालू और तेंदुए बहुत हैं… सैकड़ों वर्ग किलोमीटर में फैले इस जंगल में 2 घरों के इस गाँव से इन जानवरों को कोई फर्क नहीं पड़ता…
इस पूरे गाँव में केवल एक ही शौचालय है… वह भी इन घरों से हटकर है… मुझे देर रात तक जगने की और सोते समय शौच जाने की आदत है… यहाँ आकर देर रात शौच जाने की आदत छूट गई है…
हम अक्सर सोचते हैं कि हमारा एक ठिकाना ऐसा हो, जो घने जंगल से घिरा हो… उधर यूपी में मेरे मित्र अनुराग शर्मा जी का Homestay भी दुधवा के जंगल से एकदम लगा हुआ है… लेकिन वहाँ एक तरफ गाँव के दूसरे घर और बगल में एक सड़क है…
जबकि यहाँ तीसरा कोई घर नहीं है और नजदीकी सड़क 3 घण्टे की पैदल दूरी पर है… Bone chilling fear क्या होता है, वो यहाँ अंधेरा होते ही महसूस होता है…
लेकिन इसकी भी आदत पड़ जाती है… पहले दिन हम किचन से कमरे तक जाने में डर रहे थे… दूसरे दिन देर रात तक ओपन बालकनी में और नीचे खुले में टहलते रहे, लेकिन शौचालय जाने की हिम्मत ना हुई।
दीपक जितना फोटो में मुस्कुरा रहा है रियल लाइफ में भी ऐसे ही हमेशा मुस्कुराता रहता है। थोड़ा-सा शर्मीला टाइप का है पर एक बार कंफर्ट जोन में आने के बाद चुप भी नहीं बैठता है मतलब आपको बोर नहीं होने देगा।
दीपक सुखी टाॅप से ऊपर कंडारा बुग्याल में सुखी गाँव वालों का मवेशी चराता है। 300 से अधिक गायों को लेकर कंडारा बुग्याल में एक तंबू, स्लीपींग बैग और दो-तीन महीने का राशन के साथ अकेले रहता है। जगह की खुबसूरती की बात की जाए तो चारों तरफ़ महान बर्फीले हिमालय की चोटियों का नाजारा, ज़मीन पर मखमली घास के मैदान जिसमें हरे, नीले, पीले, सफेद इत्यादि फूल खिले हुए, चारों तरफ़ से आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों के सुगंधित महक, झरना, पानी का छोटा-सा सरोवर ऐसा जगह जो स्वर्ग से कम खुबसूरत नहीं है वहाँ दीपक अकेले रहता है।
अब तक की बातों से दीपक की जिंदगी बहुत आसान प्रतीत होता है पर दरहकीकत इतना आसान नहीं है। स्नो लेपर्ड, ब्राउन बेयर, हिमालयन ब्लैक बेयर के तादाद भी बहुत है। दीपक कहता है कि हर एक दो दिन में भालू को आता जाता देखता है गनीमत है कि भालू इंसान को देखकर आक्रमण नहीं करता है जब-तक अचानक से उनके सामने ना आ जाए। तेंदुआ अक्सर गायों पर हमला कर देता है आप कह सकते हैं कि गायों की वजह से दीपक सुरक्षित रहता है। दीपक के पास एक फोन भी है पर ना नेटवर्क रहता है ना चार्ज रहता है। इस सब के बावजूद दीपक हमेशा खुश रहता है और मुस्कुराता रहता है। बहुत ही सीमित साधन के साथ रहता है पर कभी इनके पास कोई आए तो उनके लिए कुछ कमी नहीं रहता है। टैंट में रहने देता है, खाना शेयर करता है और मीठी-मीठी बातें शेयर करता है।
सुखी गाँव एनएच 34 गंगोत्री रोड पर हर्षील से 13 किलोमीटर पहले पड़ता है। यह गाँव बहुत ही खुबसूरत है। सबसे बड़ी बात गाँव में शांति है। एकांत में रहने वालों के लिए यह जगह स्वर्ग से कम नहीं है। इस गाँव से दक्षिण पूर्व में श्रीकंठ, द्रौपदी का डंडा और रुद्राग्रह महान हिमालय के बर्फीले शिखर दिखाई देता है, पश्चिम में बंदरपूँछ, काला नाग और प्रत्याकुंड शिखर दिखाई देता है उत्तर में ओम पर्वत और भागीरथी क्रमशः 1, 2, 3 शिखर दिखाई देता है। यहाँ से मखमली घासों, रंगबिरंगे फूलोँ व आयुर्वेदिक जड़ीबूटियों के मैदान कंडारा बुग्याल और अवाना बुग्याल ट्रैकिंग के लिए भी इस गाँव से रास्ता है। सर्दियों में बहुत बर्फबारी होती है। जब पूरा गाँव बर्फ से ढक जाता है तो स्विट्जरलैंड से भी ज्यादा खुबसूरत लगता है।
इस गाँव में सेब, राजमा और आलू यही तीन फ़सल उगते हैं। ज्यादातर लोग सेब उगाते हैं। यह टकनौर रेंज में आता है। यहाँ विभिन्न प्रकार के वन्यजीव-जंतु और जड़ी-बूटी पाए जाते हैं। तेंदुआ अक्सर मवेशियों पर हमला करते रहते हैं। अक्टूबर में सेब पक जाते हैं तो भालू भी आते-जाते रहते हैं। उत्तराखंड का राज्य पक्षी पहाड़ी मोनाल भी बहुत पाए जाते हैं, इस पक्षी की सबसे बड़ी खासियत है हवा में हैंग हो जाना। मृगों की संख्या भी बहुत है। पहाड़ी लंगूर और पहाड़ी बकरी भी दिखाई देते हैं। बालछड़ी, हिसालू, अतीस, पिपली, चोला इत्यादि जड़ी-बूटी गाँव वाले अवाना और कंडारा बुग्याल से लेकर आते हैं जिसे अलग-अलग बिमारियों में इनका इस्तेमाल करते हैं। एक जड़ी जो पेट की सफाई के लिए भी इस्तेमाल करते हैं लेकिन ज्यादातर चटनी बनाकर खाते हैं, नाम मुझे स्मरण नहीं है।
प्राकृतिक खूबसूरती, मनोरम दृश्यों, अनुकूल मौसम वन्यजीव-जंतु और पादपों से भरे इस गाँव में पर्यटन नाममात्र है। गंगोत्री धाम के कपाट खुलते हैं तो तब कुछ श्रद्धालु यहाँ रूकते हैं। मुश्किल से दो महीना सीज़न चलता है। बांकि दस महीने कोई नहीं आते हैं। कुछ लोग सर्दियों में बर्फबारी के लुत्फ उठाने आते हैं लेकिन इस गाँव को इग्नोर करके हर्षील चले जाते हैं। श्रद्धालु भी ज्यादातर हर्षील, धराली, मुखबा, गंगोत्री ही ठहरते हैं।
इस गाँव में नेटवर्क की कोई प्रोब्लम नहीं है। जीयो, एयरटेल, बीएसएनएल तीनों के टावर लगे हुए हैं। मैं जियो इस्तेमाल करता हूँ औसतन स्पीड 2-3 Mb/s की आती है। गाँव में दो स्कूल है एक पांचवीं तक और दुसरी आठवीं तक। इससे ऊपर की पढ़ाई के लिए बच्चों को या तो हर्षील भेजते हैं या उत्तरकाशी। यहाँ आसपास कोई भी स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं है। सामान्य चिकित्सा के लिए उत्तरकाशी जाते हैं, आॅपरेशन या गंभीर बीमारी के इलाज के लिए देहरादून आना पड़ता है।
फिर भी यहाँ के लोग बहुत सुखी है, इसलिए गाँव का नाम सुखी पड़ा है।
कहते हैं कि हजार किताबों के पढ़ने के बराबर होती है एक यात्रा!
हमारे सोसाइटी में घुमक्कड़ी को शौकिया काम समझा जाता है, लोग मानते हैं कि ये सिर्फ खाली समय या छुट्टियों में ही किया जा सकता है हालाँकि प्राचीन समय में बहुत लोग यात्रा करते थे पर अब पारिवारिक ढांचा और आर्थिक जिम्मेदारियों का बोझ घुमक्कड़ी को अमीरों के शौक का टैग दे दिया है। मध्यम वर्गीय परिवारों को लगता है घुमक्कड़ी कोई जरूरी काम नहीं है इसके बिना भी जिदंगी चल सकती है, नौकरी-पेशा करने वालों को घुमक्कड़ी के लिए आॅफिस से छुट्टी नहीं मिलती, स्टूडेंट्स को पेरेंट्स से परमिशन नहीं मिलता है मतलब हमारे सोसाइटी में इसे गैर-जरूरी काम समझा जाता है वहीं पश्चिमी देशों में ट्रैवलिंग को बेहतर जिंदगी जीने और जिंदगी के लुत्फ लेने के लिए बेहद जरूरी समझा जाता है।
चूँकि हम भारतीयों को दिखावा करना, शाॅ आॅफ करना ज्यादा पसंद है। आईफोन है तो आईने के सामने एप्पल ब्रांड दिखाते हुए सेल्फी लेना, कार से किसी के घर जाते हैं तो पैर फैलाकर बैठना एवं चाबी को टेबल पर सबके सामने रखना आदत सी है और सभ्य दिखने के दिखावेपन के लिए पश्चिमी देशों के संस्कृति का अंधाधुंध फाॅलो करने लगते हैं। हाँ इसके कारण भारत में ट्रैवलिंग का प्रचलन जरूर बढा़ है पर देखा जाए तो बात दिखावेपन का ही है। विदेशी यात्रा घुमक्कड़ी के मकसद यानी कि जिदंगी जीने और जिंदगी के लुत्फ़ लेने के लिए करते हैं और भारतीय पड़ोसियों को चिढ़ाने, मित्रों रिश्तेदारों की देखा-देखी में या उनसे एक कदम आगे रहने के लिए करते हैं। ये लोग सिर्फ उन्हीं जगहों पर जाते हैं जहाँ का नाम होता है भीड़-भाड़ होती है। भारत में अनेकों स्वर्ग जैसी खुबसूरत जगह है, अनेकों जगहों पर बर्फबारी होती है.. पर लोग स्विट्जरलैंड, यूरोप भागते हैं और कुछ लोगों को तो लगता है कि भारत में बर्फबारी कुछ ही जगहों पर होती है।
खैर अब स्थिति बदल रहा है। बहुत सारे लोग घुमक्कड़ बन रहे हैं अच्छी खासी नौकरी छोड़-छाड़कर दुनिया घुम रहे हैं, भारत घुम रहे हैं उन मिथकों को तोड़ रहे हैं जिन्हें समझा जाता है कि ये सिर्फ विदेशी ही कर सकते हैं भारतीय नहीं। वैसे मैं भारत घुम रहा हूँ और उन जगहों पर जाता हूँ जिसे लोग इग्नोर कर देते हैं। मैं कोशिश कर रहा हूँ कि सिर्फ घुमा ही नहीं जाए कुछ ऐसा प्रयास करें कि वह जगह भी फेमस हो वहाँ भी लोग जांए देश की खुबसूरती देखें और फेमस जगहों से भीड़-भाड़ का लोड कम हो ताकि पर्यावरण का भी फायदा पहुँचे।
मैं घुमक्कड़ी के लिए पैसे कहाँ से लाता हूँ?
बहुत से लोगों का काॅल आता है, मैसेज आता है। सबसे ज्यादा सवाल जो पूछते हैं कि आप क्या काम करते हो? आमदनी का क्या स्रोत है? इतना पैसा कहाँ से लाते हो?
मैं कोई नौकरी पेशा नहीं करता हूँ ना मेरा कोई बिजनेस है ना मैं अमीर बाप का बच्चा हूँ। काॅलेज के समय से ही चुनाव में रणनीति प्रबंधक का काम करता हूँ, यह एक सीजनल काम है जब चुनाव होता है तो आमदनी होती है। फैमिली को भी सपोर्ट करता हूँ और अपने संस्थान में भी लगा देता हूँ। नाममात्र का थोड़ा बहुत अपने पास रख लेता हूँ।
देखिए पहली बात मैं सिंगल हूँ इसलिए मेरा ज्यादा खर्चा नहीं है। दूसरी बात मेरी बिल्कुल साधारण जिंदगी है, घुमक्कड़ी में लक्जरी लाइफस्टाइल की कामना नहीं कर सकते, जहाँ मिले वहीं सो जाता हूँ जो मिला वही खा लेता हूँ, पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करता हूँ ज्यादातर लिफ्ट ले लेता हूँ जो सेना की गाड़ियों में बा आसानी लिफ्ट मिल जाता है। मेरे पास ना महंगे फोन है ना कैमरा है..फोटो वीडियो में क्वालिटी देख सकते हो.. फ़ोन से वीडियो बनाता हूँ तो वीडियो में ओरिजनल नजारे दिखता ही नहीं है दूर का तो छोड़िए पास का भी धूंधला दिखता है.. यूट्यूब के लिए गो प्रो का एक एवरेज कैमरा लेना है पर ले नहीं पा रहा हूँ.. इससे अंदाजा लगा सकते हो कि मैं अमीर बाप का बच्चा नहीं हूँ।
पर इससे मेरी घुमक्कड़ी पर कोई असर नहीं पड़ता है।
सूद के सेब…
बागोरी गांव में 2 महीने सूद साहब के यहाँ रहे… फिर फौजी साहब के यहाँ शिफ्ट हो गए… क्योंकि फौजी का मकान नदी के एकदम किनारे था और उस पार घना जंगल था…
तो पहले हमारी सूद फैमिली से घनिष्ठता बढ़ी… दो अनजान लोगों में घनिष्ठता तब बढ़ती है, जब आपस में सुख-दुख की बातें होने लगें… सूद साहब की परचून की एक दुकान थी… अक्सर मैं दुकान पर जा बैठता और इधर-उधर की खूब बातें होतीं…
थोड़ा आगे ही एक अंकल-आंटी रहते थे… केवल दो जने… बूढ़ा और बूढ़ी… इस उम्र में भी अपना होमस्टे चला रहे थे… हम अपने मित्रों को अक्सर उनके यहाँ ठहरा देते थे… आंटी सिड्डू बहुत स्वादिष्ट बनाती थीं… हम उनके सिड्डू के दीवाने थे… हमारा कोई मित्र अगर उनके यहाँ नहीं ठहरा है, तो भी एक सिड्डू पार्टी जरूर होती… धीरे धीरे उनसे भी हमारे पारिवारिक सम्बन्ध होने लगे और इधर-उधर की खूब बातें होने लगीं…
अब बचे फौजी साहब… इनका कोई होमस्टे या दुकान नहीं थी… फिर भी एक समय ऐसा आया, जब उनके घर के ज्यादातर कमरे किराये पर चले गए… जाहिर है कि ऐसा हमारे कारण ही हुआ… फिर हमने उन्हें कुछ गणित समझाया और वे अपने घर को होमस्टे में तब्दील करने की तैयारी करने लगे… ज्यादातर कमरों में अटैच बाथरूम नहीं थे, लेकिन हमारे देखते-देखते उन्होंने अटैच बाथरूम का काम शुरू करवा दिया था…
इनसे भी हमारी बहुत घनिष्ठता हो गई…
भारत के शहरों में भले ही पड़ोसी पड़ोसी को न जानता हो, लेकिन गाँवों में ऐसा नहीं है… यहाँ सभी एक-दूसरे के बारे में सबकुछ जानते हैं… बल्कि ज्यादा भी जानते हैं… प्रशंसा भी करते हैं और टांग भी खींचते हैं… कोई हम जैसे जब सूद की दुकान पर बैठता, तो कईयों के कान खड़े हो जाते… जब अंकल-आंटी से बातें करते, तो भी कईयों के कान खड़े होते… और जब फौजी से गपशप कर रहे होते, तो भी… और तो और, इन तीनों ने हमें एक-दूसरे के बहुत सारे राज बताए, जिन्हें हम कभी उगलेंगे नहीं…
ये थी कहानी की बैकग्राउंड… अब चलते हैं आगे…
तो सितंबर का महीना था… सेब पकने लगे थे… तीनों के यहाँ ही सेब के बगीचे थे…
मैं सूद से गप्पें लड़ा रहा था… चलने लगा, तो उन्होंने मुझे 3 सेब दे दिए… इन तीनों सेबों को लेकर मैं अपने कमरे की ओर चल दिया, फौजी के यहाँ… रास्ते में अंकल-आंटी का होमस्टे… आंटी ने आवाज लगाई… “ओ, तू किधर से आ रहा है अभी??…”
“आंटी, सूद के यहाँ से… ये देखो, सेब दिए हैं सूद ने…”
“हुँह, बड़ा आया सूद के सेब वाला… ये बता, चाय पियेगा या खीर खाएगा??…”
“खीर कौन देकर गया है??…”
“पिटाई कर दूँगी तेरी… कोई नहीं देकर गया… मैंने बनाई है…”
“तो दोनों ही ले आओ… चाय भी और खीर भी… चाय में अदरक इलायची सब डालना और खीर ठंडी होनी चाहिए…”
“तेरा सिर… ठंडी होनी चाहिए… जा, कुछ नहीं दूँगी तुझे… तू सेब ही खा ले…”
“अच्छा, ले आओ, जो मन करे…”
आंटी खीर ले आईं… चलने लगा, तो उन्होंने परात भरकर सेब पकड़ा दिए… “ले ये टेस्ट करना और अपने दोस्त को भी कराना..और ये भी बताना कि सूद के सेब ज्यादा अच्छे हैं या हमारे सेब ज्यादा अच्छे हैं…”
“आंटी, अच्छे तो सूद के ही होंगे…”
“तेरी ऐसी कि तैसी… भाग यहाँ से…”
मैं परात भर सेब लेकर अपने कमरे पर आया… आते हुए फौजन ने देख लिया… परात देखकर पहचान लिया कि मुझे सेब किसने दिए हैं… गाँवों की महिलाएँ इन कामों में निपुण होती हैं…
मैं और पहलवान जी कमरे में बैठकर सेब खा रहे थे… और सूद के तीन सेबों से किस तरह आंटी के परात भरकर सेब बने, यह कहानी साझा कर रहे थे… कि दरवाजे पर खटखट हुई… दरवाजा खोला, तो फौजन थीं… सिर पर टोकरा रखा हुआ था…
“ये लो, मैं आपके लिए अभी-अभी तोड़कर सेब लाई हूँ… इन सेबों का और उन सेबों का टेस्ट करके बताओ… परात वाले सेब भूल जाओगे…”
हमने सेबों से भरा हुआ टोकरा रख लिया…
और कहानी का नाम पड़ गया… “सूद के सेब”…
मैं कश्मीर जाना क्यों छोड़ दिया? (एक अजीब कहानी)
मुख्य रूप से मैं 2018 से घुमक्कड़ी कर रहा हूँ उससे पहले अंतिम बार यात्रा 2016 में किया था। घुमक्कड़ी हमेशा अकेले ही किया हूँ क्योंकि मेरे दोस्तों को अबतक लगता है कि घुमक्कड़ी में बहुत पैसा लगता है इसलिए कोई साथ आता नहीं है। मेरे पास ना खुद का टैंट ना स्लीपिंग बैग, ना ट्रैकिंग का जूता कहने का मतलब एक काॅलेज बैग जिसमें दो सेट कपड़ा, मोबाइल चार्जर और डाक्यूमेंट्स के अलावा और कोई दूसरा इक्विपमेंट नहीं होता था फिर भी लंबे लंबे वक़्त तक घुमक्कड़ी किया हूँ।
2018 में काॅलेज के एक कंपिटीशन में फर्स्ट आया इनामी राशि ₹6000 मिला था। घर आया खाना खाया बैग में कपड़ा और चार्जर रखा मम्मी को बोला एक महीने के लिए बाहर जा रहा हूँ और दिल्ली कैंट स्टेशन की तरफ भागा। दिल्ली कैंट से जम्मू तवी के लिए रात 9 बजे ट्रेन थी। सेंकड क्लास में बिना टिकट लिए चढ़ गया। बैठने की जगह नहीं थी और सफ़र लगभग 10 घंटे का था। गेट के पास किसी तरह जगह बनाकर बैठ गया। गर्मी और पसीना से जूझते आखिरकार सुबह जम्मू तवी पहुँच गया। ट्रेन से उतरकर सबसे पहले सुलभ सौचालय ढूंढ़ा 10 रूपए देकर फ्रेश होकर आया फिर नाश्ते में छोले भटूरे खाया और बस अड्डा की ओर बढ़ा। श्रीनगर के लिए बस लगी हुई थी उसमें चढ़ गया ₹400 का टिकट कटा लगभग शाम 4:30 बजे तक श्रीनगर पहुँच गए। सफ़र में इतना थक गया था कि एक क़दम भी आगे चलने की हिम्मत नहीं हो रही थी ऊपर से रात-भर सोया नहीं था तो लग रहा था बस स्टैंड पर ही सो जाएं पर यह आॅप्सन था नहीं इसलिए रोड पर आना ही पड़ा। थोड़ा भटकने के बाद ₹250 में सिंगल बेड रूम मिल गया। मुँह-हाथ धोया नीचे उतरकर सामने वाला रेस्टोरेंट में गया एक प्लेट बिरयानी खाया और वापस रूम में आकर सो गया। सुबह आँख खुली तो फज़र की अज़ान हो रही थी। मैं उठकर बैठ गया और फ़ोन चलाने लगा गया कुछ देर बाद रोड पर काफी लोग के चलने की आवाजें आने लगी तो समझ गया लोग फज़र की नमाज पढ़कर वापस जा रहे हैं मतलब सुबह हो गई। फ़ोन को चार्ज में लगाकर फ्रेश होने गया। ब्रश किया, मुँह पर पानी मारा और तैयार हो गया। सुबह टहलने के लिए निकल पड़ा कुछ दूर बाद डल लेक ब्रीज (घाट-1) तक पहुँच गया। यहाँ पर संयोगवश दिल्ली विश्वविद्यालय का एक मित्र शोजात भाई मिल गया। उन्होंने मुझे अपने घर लेकर गया। दो हफ्ता उन्हीं के घर रहा, बहुत अच्छी खातिरदारी हुई आंटी ने मुझे किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं होने दी। सुबह आँख खुलते ही कहुआ और नाश्ते में चावल की रोटी और गोस्त हाज़िर रहता। लंच टाइम तक अदीबा (शोजात का बहन) शोजात और मैं तीनों खूब एक दूसरे के टांग खिंचाई करते, मज़ाक करते हंसते खेलते खूब बातें करते फिर लंच करने के बाद थोड़ा आराम करते थे शाम में शोजात भाई के साथ घुमने निकल आते थे रात के डीनर में लाजवाब खाना होता था। दो हफ्ता में शोजात भाई के साथ पूरा श्रीनगर घुम लिया।
पंद्रहवें दिन श्रीनगर से सोनमर्ग पहुँचा। शोजात भाई ने पहले बता दिया था यहां ठंड लगेगी इसलिए श्रीनगर से ही स्वेटर ले लिया था। शाम के समय में ठंड और बढ़ गई थी पर अभी तक सस्ते होटल की तलाश जारी थी। सोनमर्ग अमूमन महंगा है। ₹2000 से नीचे रूम मिल ही नहीं रहा था। मैं 200 से 300 तक का रूम ढूंढ रहा था जो नामुमकिन ही था। एक चाचा जी से अचानक भेंट हुई। चाचा मुझे अपने घर आने के लिए दावत दिया मैं उनके साथ हो लिया। चाचा जी एक झोपड़ी में रहते थे अपने परिवार और भेड़-बकरियों के साथ। घर में दाखिल होते ही उनकी बेटी कहवा और मीठी रोटी ले आई। चाचा जी के साथ ढ़ेर सारी बातें हुई फिर रात के खाने में भी बहुत खातिरदारी हुई, सोने से पहले आधा लीटर से ज्यादा बड़ा गिलास में दूध मिला पीने के लिए। सुबह भी बहुत खातिरदारी हुई। निकलने से पहले चाचा जी को ₹1000 देने का बहुत प्रयास किया पर लिया नहीं। बोले मेरा बेटा भी तुम्हारे जैसा था पर अब नहीं है। बहुत पूछने पर बताया गोलीबारी में मारा गया था। मैं ज्यादा कुछ पूछना नहीं चाहता था। दुःख प्रकट किया, दुआ किया कि घाटी में शांति बहाल हो। चाचा को सलाम दुआ करके आगे एक गाँव की तरफ़ बढ़ गया। गाँव ज्यादा बड़ा नहीं था। एक घर में ₹700 में 15 दिन के लिए एक रूम मिल गया। एक ढा़बा में खाने पीने का व्यवस्था हो गया। ढाबा पर सुबह-शाम गाँव के सभी बड़े बुजुर्ग जमावड़ा लगाता गपशप चलता। कश्मीरी में क्या बात करते थे मुझे पता नहीं चलता था। लगभग 6 दिन हो गया था उस गाँव में। सातवें दिन जुमा का नमाज़ पढ़कर वापस आया तो जिसके घर में रूका हुआ था उन्होंने मुझसे पूछा “तुम इंडियन हो क्या?”
मैंने कहा “हाँ इंडियन हू्ँ कोई शक है क्या?”
“तुम्हारे वजह से गाँव वाले खतरे में आ गया है”
“क्यों मैंने ऐसा क्या किया?”
मैं समझ गया था कुछ गड़बड़ है। मैं इंडियन आर्मी पर गर्व करता हूँ और मुझे पूरा भरोसा था कि आर्मी कुछ नहीं होने देगा।
“तुम्हारे पास कुछ डाक्यूमेंट्स है?” मकान मालिक ने मुझसे पूछा
“पर हुआ क्या है ये तो बताइए”
” गाँव के किसी #@* ने जाकर आर्मी वाले को ख़बर कर दिया है कि कोई अंजान लड़का काफ़ी समय से गाँव में रह रहा है, अब आर्मी वाला आकर तुम्हारे साथ जो करेगा वो तो करेगा ही पर हम लोगों से भी बहुत पूछताछ होगी और मेरी गलती रही है कि तुम्हारे पुलिस वेरिफाई नहीं करवाया… तुम समझ लो तुम्हारा आखिरी समय है”
” नहीं अंकल जी ऐसा नहीं हो सकता है हमारा आर्मी बंदूकधारियों को भी सरेंडर करने का मौका देती है, मेरे पास कोई हथियार नहीं है और इंडियन होने का सारा डाक्यूमेंट्स है मेरे पास! और मैं..” मुझे बीच में ही रोकते हुए अंकल जी बोले
“यहाँ आर्मी पहले एनकाउंटर करती है फिर चेक करती है कि कौन है!”
“अंकल जी ऐसा नहीं हो सकता” मैंने कहा
“आर्मी आएगी तो देख लेना” अंकल बोला
“ठीक है” मुझे पूर्ण विश्वास था
थोड़ी देर बाद चार पुलिस वाला आया। पूरे घर की तलाशी लिया। मेरे बैग के अलावा कुछ नहीं मिला। मुझे और मकान मालिक को जीप में बिठाकर थाणा ले गया काफी पूछताछ किया। जैसे..
“यहाँ क्यों आए?”
“घुमक्कड़ हूँ घुमने आया था”
“घुमने आया था तो लंबे समय तक गाँव में ठहरने का क्या लेना-देना? सच सच बता दे”
“सच यही है कि मैं प्रकृति प्रेमी हूँ मैं कश्मीर घुमने आया था श्रीनगर दो हफ्ता रूककर इधर आया हूँ”
“श्रीनगर में कहाँ रूका था”
“काॅलेज के दोस्त के घर”
“काॅलेज कहाँ है?”
“दिल्ली में धौला कुआं में”
“कौन सा काॅलेज है?”
“आत्मा राम सनातन धर्म काॅलेज”
“काॅलेज की आईडी है?”
“हाँ है”
“अपने दोस्त से बात करवा”
मैंने शोजात भाई को काॅल लगाया। पुलिस वाले ने बात किया। फिर काॅलेज के एक सर से भी बात कराया।
“फेसबुक पर अपना प्रोफाइल दिखा”
“देख लिजिए सर” मैंने फ़ोन में दिखाते हुए कहा
“दिल्ली में कहाँ रहता है?”
“जनकपुरी सर मेरा आधार कार्ड, वोटर आईडी, पेन कार्ड, पासपोर्ट सब आपके पास है देख लीजिए”
” ये फेक भी हो सकता है, किसी टेररिज्म ग्रुप से तो नहीं जुड़े हुए हो?”
“सर पासपोर्ट कैसे फेक हो सकता है? आप ही बताइए अब कैसे साबित करें कि इंडियन है यह गाँव भारत में नहीं आता है क्या? क्या अपने भारत में घुमना भी गुनाह है.. मैं एक स्टूडेंट हूँ यहाँ घुमने आया था.. किसी अन्य मक़सद से नहीं”
“तुम वापस दिल्ली लौट जाओगे ना”
“सर मैं अब यहाँ क्या करूंगा?”
“कैसे जाओगे”
“जैसे आया था”
“अब कभी आओगे तो होटलों में रूकना सोनमर्ग में बहुत आॅप्शन है, होटलों में जितना चाहे उतना रहना लेकिन वेरिफाई करवा कर रहना।
“ठीक है सर”
दरअसल उन इलाकों में एंटी इंडिया एक्टीविटी होती रहती है। जब मुझे पता चला कि सच में ऐसा है तो मुझे बहुत अफसोस हुआ कि मैं उनके बीच में रहा… हाँ बिल्कुल सच है कि 90% लोगों में कश्मीरियत जिंदा है। बहुत मेहमाननवाज होते हैं..पर 10% लोगों की वजह से ये लोग भी बदनाम है। इनको भी झेलना पड़ता है..
कोई अपने भारत के खिलाफ बोले तो मेरा खून खौल उठता है… इसलिए मैंने कश्मीर जाना छोड़ दिया।
लेकिन अब सुनने में आ रहा है कि माहौल बिल्कुल ठीक है। लोगों को नौकरी और रोजगार के अवसर ज्यादा मिल रहे हैं..सब अपने काम-धंधा में लगा हुआ है। सब भारत के पक्ष में आ गया है और मुझे दुबारा जाने की तीव्र इच्छा हो रही है…